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________________ १५६ | अध्यात्म-प्रवचन यहाँ पर मुझे प्रसंगवश एक साधु के जीवन की उस घटना का स्मरण हो आया है, जिस घटना ने आज से अनेक वर्षों पूर्व मेरे मन और मस्तिष्क पर एक गहरी विचार रेखा अंकित की थी। वह घटना इस प्रकार है। एक बार हम कुछ साधु विहार-यात्रा कर रहे थे। विहार-यात्रा करते-करते एक ऐसी पहाड़ी के पास पहुंचे जहाँ उस पर चढ़कर ही आगे का रास्ता नापा जा सकता था। अन्य कोई मार्ग न होने के कारण साथ के वृद्ध सन्तों को भी पहाड़ पर चढ़ना पड़ा। मैं तो उस समय युवक था, पहाड़ पर चढ़ने की समस्या मेरे सामने कोई समस्या न थी, किन्तु प्रश्न वृद्ध जनों का था । - एक सन्त कुछ अधिक वृद्ध थे, अतः उन्होंने अपने उपकरण अपने तरुण शिष्य को दिए और कहा कि जरा संभल कर चलना और पात्र जरा संभाल कर रखना। संयोग की बात है। उस पर्वत को पार करते हुए जिस समय संतों की टोली चली जा रही थी, तब उस वृद्ध गुरु का तरुण शिष्य पैर में चट्टान की ठोकर लगने से गिर पड़ा और उसके हाथ का जल-भरित काष्ठ पात्र भी टूटकर खण्ड-खण्ड हो गया । इस दृश्य को देखकर वृद्ध गुरु से रहा नहीं गया। वह अग्निमुख होकर बोला-“अन्धे! दीखता नहीं है तुझे ! मैंने कहा था कि सँभल कर चलना, किन्तु जवानी की मस्ती में अन्धा होकर चला और बिल्कुल नया पात्र तोड़ डाला । इस पात्र को मैंने कितने प्रेम और कितने परिश्रम से रंगकर तैयार किया था, किन्तु दुष्ट तूने इसे तोड़कर मेरे सारे परिश्रम को व्यर्थ कर दिया ।" वृद्ध गुरु अपने तरुण शिष्य पर काफी देर तक चिल्लाते रहे। अपने जड़ पात्र के टूटने का तो उनके मन में बड़ा दर्द था, किन्तु दूसरी ओर चेतन-पात्र, जो उनका अपना ही शिष्य था, चट्टान की ठोकर लगने से जिसके पैर में बहुत बड़ी चोट लगी थी और जो वेदना से कराह रहा था, उससे संयम-वृद्ध गुरु ने यह भी नहीं पूछा कि "तेरे कहीं चोट तो नहीं लगी है। पात्र तो जड़ वस्तु है, यह फूट गया तो दूसरा मिल जाएगा, किन्तु वत्स ! तू यह बता, तेरे चोट कहाँ लगी है ?" कहने को यह जीवन की एक छोटी सी घटना है और जब यह घटी थी, तब इसका मूर्तरूप प्रत्यक्ष था, किन्तु इतने वर्षों के बीत जाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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