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________________ सम्यक् दर्शनः सत्य-दृष्टि | १५५ धवल होती है । तन दोनों का श्वेत होने पर भी दोनों के मन में बड़ा अन्तर रहता है। हंस की दृष्टि मोती पर रहती है, जब कि बगले की दृष्टि मछली पर रहती है। मानसरोवर जैसे अमृत-कुण्ड के पास पहेचकर भी बगला वहाँ गन्दगी को ही ग्रहण करता है । सम्यक दृष्टि और मिथ्या दृष्टि में, राजहंस और वक जैसा ही भेद है । क्योंकि एक की दृष्टि में अमृत है और दूसरे की दृष्टि में विष है। जिसके मन में विष है, वह अपने मुख से और तन से संसार को अमृत कैसे दे सकता है ? और जिसके मन में अमृत है, उसके तन में भी अमृत रहता है और उसके मुख में भी अमृत रहता है। सम्यक् दृष्टि का जीवन अमृतमय जीवन है और मिथ्या-दुष्टि का जीवन एक विषमय जीवन है। क्योंकि सम्यक् दृष्टि के पास सम्यक् दर्शन का अमृत है और मिथ्या दष्टि के पास मिथ्या दर्शन का विष है। इसी के आधार पर दोनों के जीवन की दिशा भी भिन्न हो जाती है। __ मैं आपसे यह कह रहा था, कि जीवन का परिवर्तन केवल गृहस्थ बनने या केवल साधु बनने से नहीं आता है। वह परिवर्तन आता है, विमल विवेक और अमल वैराग्य में से । संसार के पदार्थों की ममता को छोड़ना, सबसे मुख्य प्रश्न है। यदि वह ममता गुहस्थ जीवन में रह कर छूट जाए तो भी ठीक और साधु जीवन अंगीकार करके छ्टे, तो भी ठीक । मुख्य प्रश्न संसारी पदार्थों के प्रति माया और ममता के छोड़ने का है। आप गृहस्थ हैं, आपकी बात तो बहुत दूर की है। किन्तु साधु-जीवन अंगीकार करने वाले व्यक्ति के जीवन में भी जब कभी मैं माया और ममता का ताण्डव नृत्य देखता हूँ, तब मुझे बड़ा आश्चर्य होता है । मैं सोचा करता है, कि जीवन के मान सरोवर के स्वच्छ तट पर यह राज हंस बनकर के आया है अथवा छली वक बनकर आया है। जब कभी मैं अपने जीवन के एकान्त शान्त क्षणों में इन त्यागी कहे जाने वाले सन्तों के विगत जोवन की परतों पर विचार करता हूँ तो मुझे बड़े ही अजीबोगरीब नजारे देखने को मिलते हैं । अजब गजब की बात है, कि उन्होंने अपना धन छोड़ा, सम्पत्ति छोडी और अपने परिवार का प्रेम छोड़ा, जिस घर में जन्म लिया था उस घर को भी छोड़ा, परन्तु यह सब कुछ छोड़कर भी, यदि माया छोड़ी नहीं, यदि ममता छोड़ी नहीं, यदि वासना छोड़ी नहीं तो मैं पूछता हूँ आपसे कि उन्होंने क्या छोड़ा? केवल घर छोड़कर बेघर होने से ही कोई साधु नहीं बन जाता एवं त्यागी नहीं बन जाता। साधु-जीवन इतना सरल नहीं है, जितना उसे समझ लिया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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