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१५४ | अध्यात्म-प्रवचन
ही कोई दूसरा स्वीकार कर ले, किन्तु मुझ जैसा व्यक्ति इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता । भारतीय संस्कृति में चक्रवर्ती भरत का जीवन और विदेह देश के राजा जनक का जीवन एक आदर्श जीवन माना जाता है । भरत और जनक का आदर्श जीवन केवल आकाश की ऊँची उड़ान ही नहीं थी, बल्कि वह इस धरती का ठोस यथार्थ था । जो कुछ भरत और जनक के जीवन के सम्बन्ध में कहा सुना जाता है, वह केवल कल्पनात्मक नहीं, बल्कि प्रयोगात्मक ही था । स्वर्ण सिंहासन पर बैठकर भी विनीता नगरी के भरत ने और मिथिला नगरी के जनक ने अनासक्ति, वैराग्य और त्याग का एक ऊंवा आदर्श प्रस्तुत किया था; जिससे आज भी भारतीय साहित्य के पृष्ठ आलोकित हो रहे हैं । गृहस्थ जीवन में यदि सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो चुकी है, तो गृहस्थ जीवन में भी मुक्ति के द्वार खुले हुए हैं। इसके विपरीत यदि कोई श्रमण बन जाता है, तो केवल वेश धारण करने मात्र से ही उसके लिए मुक्ति के द्वार नहीं खुल जाते । साधु-वेश ग्रहण करके भी यदि भोग- दृष्टि बनी हुई है तथा माया, ममता और वासना के विष को जीवन से नहीं निकाला गया है, तो वह साधु-जीवन भी किस काम का है ? मैं आपसे स्पष्ट कह रहा हूँ कि जीवन के बाने बदलने से समस्या का हल नहीं है, समस्या का हल होगा, जीवन की बान बदलने से | बान बदलने का अर्थ क्या है ? उसका अर्थ यही हैकि दृष्टि को बदलो, मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व को प्राप्त करो । जीवन एक अमूल्य निधि है, फिर भले ही वह गृहस्थ का हो या साधु का । मुख्य बात यह है, कि जीवन में रहकर भी हजारों लोगों ने अपने जीवन का विनाश किया है और जीवन में रहकर भी हजारों लोगों ने अपने जीवन का विकास किया है। संसार में विष भोजी भी हैं और अमृत भोजी भी हैं । भोग के विष का पान करने वालों की संसार में कभी कमी नहीं रही और कभी कमी नहीं रहेगी । इसी प्रकार वैराग्य- अमृत का पान करने वाले लोगों की भी कभी संसार में कमी नहीं रही और कभी कमी नहीं रहेगी । विनाश को विकास में बदलने के लिए और विष को अमृत बनाने के लिए एक मात्र सम्यक् दर्शन की आवश्यकता है । अन्यथा दृष्टि के न बदलने पर जीवन में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं आ सकेगा; फिर भले ही जीवन चाहे किसी बनवासी का हो और चाहे किसी गृहवासी का हो । मान सरोवर पर हंस भी रहता है और बगुला भी रहता है । दोनों की देह
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