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________________ सम्यक् दर्शनः सत्य-दृष्टि | १५३ भोगवाद की तुला पर ही तोलता रहता है । सम्यक् दृष्टि भी भोजन करता है केवल शरीर की पूर्ति के लिए, जबकि मिथ्या दृष्टि भोजन करता है केवल स्वाद के लिए । सम्यक् दृष्टि कहता है, कि जीवन में सुख आए तब भी ठीक और दुःख आए तब भी ठीक । उन दोनों में समत्व योग की साधना करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि संसार के क्षणिक सुखों में सुखी और दुःखों में दुःखी रहता है । कर्म के फल को दोनों ही भोगते है, एक समभाव से भोगता है और दूसरा विषम भाव से । इसलिए एक कर्मफल को भोगकर आगे के लिए कर्म के चक्र को तोड़ डालता है और दूसरा कर्म-फल को भोग कर भी भविष्य के लिए नए कर्मों का बन्ध कर लेता है । मिथ्या दृष्टि भोग के कुण्ड में जन्म भर पड़ा-पड़ा सड़ा करता है, किन्तु सम्यक दष्टि भोग के कुण्ड में जन्म लेकर भी त्याग और वैराग्य के अमृत कुण्ड की ओर अग्रसर होता रहता है । सम्यक् दृष्टि कहता है-कि मेरा स्वप्न मिथ्या दृष्टि के समान होते हुए भी कुछ विशेषता रखता है । सम्यक दृष्टि सांचता हैं, कि पुराना प्रारब्ध बिना भोगे कर्मों से छुटकारा नहीं मिल सकता। मैं भोग के कुण्ड में अवश्य पड़ गया, परन्तु इस गन्दगी में पड़कर तथा जन्म लेकर भी रसास्वादन मुझे अध्यात्मिक अमृत का ही करना है। इस प्रकार सम्यक् दृष्टि और मिथ्या दृष्टि में मूल भेद दृष्टि का ही है। मैं आपसे मिथ्या दृष्टि और सम्यक् दृष्टि को चर्चा कर रहा था। मिथ्या दृष्टि और सम्यक दष्टि के जीवन के स्वरूप को बिना समझे, हम अपने अध्यात्म-जीवन में प्रवेश नहीं कर सकते । मोक्ष की साधना प्रारम्भ करने से पूर्व यह जाँच लेना आवश्यक है, कि हमारी दृष्टि मिथ्या है अथवा सम्यक है। संसार में रहकर भी संसार के भोगों में जो आसक्त नहीं होता, वही व्यक्ति मोक्ष की साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है । सम्यक् दृष्टि का जीवन एक वह जीवन है, जिसका जन्म तो भोग के कीचड़ में हुआ है, किन्तु जो इस भोग के कीचड़ से ऊपर उठकर कमल के समान मुस्कराता रहता है । गृहस्थ हो अथवा त्यागी हो, दोनों के जीवन की आधारशिला सम्यक् दर्शन ही है। यदि सम्यक् दर्शन प्राप्त नहीं किया है, तो श्रावक बनकर भी कुछ नहीं पाया और श्रमण बनकर भी कुछ नहीं पाया। यह कहना गलत है, कि गृहस्थ-जीवन माया, ममता और वासनामय जीवन है, उसमें त्याग एव वैराग्य की साधना नहीं की जा सकती। इस बात को भले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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