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________________ १५२ | अध्यात्म-प्रवचन में और आपके स्वप्न में और सब बात तो समान हैं, केवल अन्त में थोड़ा सा अन्तर है । आप और मैं घूमने निकले, एक निर्जन जंगल में पहुँचे, गन्दगी और अमृत के दो कुण्ड मिले और यह भी सत्य है कि मैं गन्दगी के कुण्ड में गिरा और आप अमृत के कुण्ड में गिरे। किन्तु मैंने इससे आगे भी कुछ स्वप्न देखा है । और वह यह है कि-कुण्ड में गिरने के बाद मैं आपको चाट रहा है और आप मुझे चाट रहे हैं।" इस बात को सुनकर सारी सभा खिलखिला उठी। अकबर बादशाह और उसके मौलवी-मुल्ला बीरबल की बुद्धि पर स्तब्ध रह गए। ___ इस रूपक को सुनकर हँसी आ जाना सहज है, परन्तु इसका उद्देश्य केवल मनोरंजन मात्र ही नहीं है। इसके पीछे जीवन का एक बहुत बड़ा ममें छिपा हुआ है। सम्यक दृष्टि जीव बीरबल के समान है, जो अन्धकार में नही, प्रकाश में चलता है। सम्यक दृष्टि जीव की बुद्धि की चमक कभी मन्द नहीं पड़तो । वह संसार के गन्दगी के कुण्ड में रहकर भी अमृत का पान करता है। संसार में रहकर उसके विष को छोड़कर मात्र अमृत अंश को ही ग्रहण करना, साधक-जीवन की बहुत बड़ी कला है । इस कला को जिस किसी भी व्यक्ति ने अधिगत कर लिया है, फिर भले ही वह चाहे परिवार के कुण्ड में रहे, समाज के कुण्ड में रहे, और चाहे किसी अन्य कुण्ड में रहे, उसके जीवन पर किसी भी प्रकार के विष का प्रभाव नहीं पड़ सकता। मिथ्यादृष्टि जीव उस बादशाह के समान है, जो अमृत कुण्ड में पड़कर भी गन्दगी को चाटता है । मिथ्या दृष्टि और सम्यक दृष्टि दोनों के स्वप्न समान हैं, बस थोड़ा सा ही अन्तर रह जाता है और वह अन्तर यही है, कि सम्यक दष्टि गन्दगी के कुण्ड में पड़कर भी अमृत के कुण्ड का आनन्द लेता है, जबकि मिथ्या दृष्टि अमृत कुण्ड में रहकर भी गन्दगो का अनुभब करता है । यह सब क्यों होता है ? मेरा एक ही उत्तर है कि यह सब अपनी-अपनी दृष्टि का खेल है । दृष्टि के आधार पर ही तो मनुष्य अपने जीवन की सृष्टि का निर्माण करता है। विचार ही से तो आचार बनता है । सम्यक दृष्टि और मिथ्या दृष्टि के जीवन में बाह्य दृष्टि से किसी प्रकार का अन्तर नहीं होता, वह अन्तर होता है केवल आन्तरिक दृष्टि का । सम्यक दृटि संसार के प्रत्येक पदार्थ को विवेक और वैराग्य को तूला पर तोलता है, उसके बाद उसे ग्रहण करता है । इसके -वपरीत मिथ्या दृष्टि संसार के भोग्य पदार्थों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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