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________________ सम्यक् दर्शन : सत्य- दृष्टि | १५१ को छोड़ कर अमृत को कौन ग्रहण नहीं करना चाहता, अन्धकार को छोड़कर प्रकाश को कौन प्राप्त नहीं करना चाहता ? यह विषोपजीबी संसारी आत्मा, जब तक अमृतोपजीवी नहीं बनेगा, तब तक सम्यक् दर्शन का दिव्य आलोक इसके जीवन के प्रांगण में प्रवेश नहीं करेगा । मिथ्या दर्शन विष है, इसीलिए वह आत्मा का अहित करता है । सम्यक् दर्शन अमृत है, इसीलिए वह आत्मा का हित करता है । एक बार अकबर ने अपने मंत्री बीरबल से कहा - " बीरबल ! आज रात्रि को मैंने एक बड़ा विचित्र स्वप्न देखा है । जीवन में स्वप्न बहुत देखे हैं, किन्तु इतना विचित्र स्वप्न आज तक नहीं देखा था ।" बादशाह अकबर की इस बात को सुनकर बीरबल ही नहीं, सभा के सभी सभासद विस्मित और चकित हुए । सबके मन में एक सहज जिज्ञासा थी, बादशाह के स्वप्न को सुनने की । बीरबल विनम्र वाणी में बोला - " जहाँपनाह ! फरमाइए आपने स्वप्न में क्या देखा ?" बादशाह बोला - " मैंने स्वप्न में देखा कि तुम और मैं दोनों कहीं घूमने जा रहे हैं, घूमते-घूमते और चलते-चलते हम एक विकट वन में पहुँच गए। एक ऐसे जगल में जा पहुँचे, जहाँ मार्ग में दो कुण्ड बने हुए थे । परन्तु उन कुण्डों की बात क्या सुनाऊँ ? वे कुण्ड बड़े विचित्र थे ।" "जहाँपनाह ! उन कुण्डों में आपने क्या विचित्रता देखी ? " - बीरबल ने पूछा । बादशाह अकबर बोला - " बीरबल ! उन दोनों कुण्डों में से एक में गन्दगी भरी हुई थी और दूसरे में अमृत भरा हुआ था । भाग्य की बात है - तू गन्दगी के कुण्ड में जा पड़ा और मैं अमृत के कुण्ड में गिर पड़ा। इस विचित्र स्वप्न को देखकर मेरी निद्रा सहसा खुल गई ।" बादशाह के इस विचित्र स्वप्न की कल्पित कथा को सुनकर बीरबल ही क्या, सारी सभा ही खिलखिला उठी । कुछ मौलवी, जो बीरबल से खार खाते थे और भी अधिक खिलखिला कर हँस उठे । वे लोग अपने मन में सोचते थे, कि बादशाह ने बहुत अच्छी स्वप्न - चर्चा उपस्थित की । उन लोगों के मन में बादशाह के अमृत कुण्ड में गिरने की इतनी खुशी नहीं थी, जितनी खुशी उन्हें बीरबल के गन्दगी के कुण्ड में गिरने की की । हँसी के फुव्वारों के बीच बात को सँभालते हुए बीरबल ने अविचलित भाव से कहा - " जहाँपनाह! मैंने भी आज रात्रि को ऐसा ही एक बड़ा विचित्र स्वप्न देखा है । मेरे स्वप्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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