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१५० | अध्यात्म-प्रवचन
के सुख-दुःखात्मक अपामार्ग के काँटों का उसके अध्यात्म जीवन पर जरा सा भी प्रभाव नहीं पड़ पाता। अध्यात्म-जीवन की यह सबसे बड़ी कला है। अध्यात्म-शास्त्र में जीवन की इस कला को सम्यक् दर्शन कहा गया है। मिथ्या दष्टि आत्मा स्वर्ग में ऊँचे चढ़कर भी नीचे गिरता है और सम्यक दृष्टि आत्मा नोचे नरक में जाकर भी अपने ऊर्ध्वमुखी जीवन के कारण नीचे से ऊँचे की ओर अग्रसर होता रहता है। यह सब कुछ दृष्टि का भेद है, यह सब कुछ दृष्टि का खेल है।
मैं आपसे सम्यक दर्शन और मिथ्या दर्शन की चर्चा कर रहा था। सम्यक् दर्शन का एवं मिथ्या दर्शन का विषय बड़ा गम्भीर है । गम्भीर और गहन होने पर भी यह परम सत्य है, सम्यक् दर्शन को बिना समझे आप अध्यात्मवादी जैन दर्शन की आत्मा को नहीं समझ सकते । आप यह भली भांति जानते हैं कि व्यापार करने में आपको कष्ट उठाना पड़ता है और कितना दुःख झेलना पड़ता है ! व्यापार करने के लिए आपको अपने देश से सुदूर विदेश में जाना पड़ता है। विदेश की यात्रा में और वहाँ रहने में अगणित कष्ट एव दुःखों को अनुभूति आपको होती है, किन्तु धन की प्राप्ति होने पर आप उन समत्र दुःखों एवं कष्टों को भूल जाते हैं, क्योंकि जिस ध्येय के लिए आपने कष्ट उठाया, उस ध्येय की पूर्ति में आप सफल हुए हैं। ध्येय में सफलता प्राप्त होने पर आप अपने समग्र कष्टों एवं दुःखों को भूल जाते हैं । यही स्थिति अध्यात्म जीवन में भी होती है । अध्यात्मवादी व्यक्ति अपने अध्यात्ममय जीवन के जिस उच्चतर लक्ष्य की ओर जब प्रयाण करता है, तब मार्ग में अनेक प्रकार के विघ्न एवं बाधाएँ उपस्थित होती हैं तथा कष्ट एवं दुःख उपस्थित होते हैं, परन्तु लक्ष्य पर पहुँच कर, साध्य की सिद्धि हो जाने पर वह इन सभी प्रकार के कष्ट एवं दुःखों को भूल जाता है। सम्यक् दर्शन की दिव्य ज्योति प्राप्त हो जाने पर अपने समस्त कष्टों को भूल जाता है, बल्कि अधिक सत्य तो यह है, कि वह अपने पथ की बाधाओं को कष्ट समझता ही नहीं है। उसके सामने एक ही रट एवं एक ही धुन रहती है, कि किसी भी प्रकार मैं अन्धकार की सीमा को पार करके अध्यात्म जीवन के दिव्य आलोक में पहँच सकू। इसी आशा और विश्वास के आधार पर अध्यात्म-साधक निरन्तर आगे बढ़ता जाता है । भला विष
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