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________________ २४२ / अध्यात्म-प्रवचन । प्रकार का अन्धविश्वास ही नहीं, बल्कि घोर और भयंकर अन्धविश्वास है। भला जब जीवित गुरु से ही ज्ञान ग्रहण नहीं कर सके, तब इसके जड़ शव से ज्ञान प्राप्त कैसे होगा? कोई भी विचारक उनके इस अन्धविश्वास से सहमत नहीं हो सकता। परन्तु मैं आपसे यह कह रहा था, कि आज के इस वैज्ञानिक युग में भी इस प्रकार का अनर्थ क्यों होता है ? इसका एक ही कारण है-बाह्य निमित्त दृष्टि । बाह्य निमित्त का यह एक भयंकर रूप है जिसे निमित्त की दुर्दशा ही कहा जा सकता है। उन्हें यह भी पता नहीं, कि गुरु में ज्ञान था भी या नहीं, और यदि था, तो वह उसकी आत्मा में था अथवा शरीर में ? निमित्त के भयंकर रूपों का वर्णन कहाँ तक सुनाया जाए । हमारे भारत का मध्यकाल पंथवादी और सम्प्रदायवादी रगड़ों और झगड़ों से भरा पड़ा है। एक मात्र बाह्य निमित्त को ही आधार मानकर हमने एक दूसरे को नास्तिक कहा, और हमने एक दूसरे को मिथ्या दृष्टि कहा । जब तक विशुद्ध उपादान को महत्व नहीं दिया जाएगा, तब तक सम्प्रदायवाद और पंथवाद के आधार पर होने वाले रागात्मक और द्वषात्मक विकल्प और विकार भी कभी दूर नहीं हो सकेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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