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पंथवादी सम्यक दर्शन
सम्यक् दर्शन अध्यात्म-साधना का एवं जैन धर्म का प्रवेशद्वार है । अनन्तकाल के बन्धनों को तोड़कर स्वतन्त्र होने एवं स्वस्वरूप में लीन होने और मोक्ष-मन्दिर में पहुँचने के लिए सम्यक् दर्शन के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नही है । ज्ञान चाहे मति, श्रुत और अवधि में से कोई-सा भी क्यों न हो, किन्तु सम्यक् दर्शन के अभाव में वे अज्ञान ही है । यह एक बहुत ही विचिच और अद्भुत बात है, कि सम्यक् दर्शन के अभाव में ज्ञान, ज्ञान नहीं रहता, अज्ञान बन जाता है । अध्यात्म-शास्त्र कहता है कि यदि एक मिथ्या दृष्टि आत्मा अश्व को अश्व कहता है, गज को गज कहता है, जीव को जीव कहता है, और जड़ को जड़ कहता है, तब भी उसका वह ज्ञान मिथ्याज्ञान एवं अज्ञान ही है। यदि वह सीप को सीप और चाँदो को चाँदी कहता है, तब भी उसका वह ज्ञान अज्ञान ही है। इसके विपरीत यदि एक सम्यक् दृष्टि आत्मा, भ्रम से जीव को अजीव कह देता है, अश्व को गधा कह देता है और सीप को चाँदी कह देता है, तब भी उसका वह ज्ञान अज्ञान न होकर ज्ञान ही होता है। मिथ्यादृष्टि को ठीक बात भी अज्ञान हो जाती है और सम्यकदष्टि की उलट-पुलट बात भी ज्ञान हो जाती है । आखिर सम्यक् दृष्टि में और मिथ्यादृष्टि में ऐसा
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