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________________ २४४] अध्यात्म-प्रवचन मौलिक भेद क्या है, जिसके आधार पर एक की सही बात भी गलत हो जाती है और दूसरे की गलत बात भी सही मानी जाती है ? उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि सम्यक दृष्टि और मिथ्या दृष्टि में मौलिक भेद यह है, कि मिथ्या दृष्टि आत्मा संसाराभिमुखी होता है और सम्यक् दृष्टि आत्मा मोक्षाभिमुखी होता है । सम्यक् दृष्टि की प्रत्येक क्रिया विवेकपूर्ण होती है, जबकि मिथ्या दृष्टि की क्रिया में किसी प्रकार का विवेक नहीं होता । सम्यक् दृष्टि को भेद-विज्ञान हो जाता है, जबकि मिथ्या दृष्टि को भेद-विज्ञान नहीं होने पाता। भेद विज्ञान वाला सम्यक् दृष्टि आत्मा कदाचित भ्रान्तिवश सही बात को गलत भी समझ लेता है और गलत को सही भी समझ लेता है, फिर भी उसके भावों में सरलता रहती है, दृष्टि आत्माभिमुखी होती है और वह समय पर अपनी भूल को सुधार भी सकता है। इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि आत्मा में कुटिल भाव होने के कारण अपनी आध्यात्मिक दर्शन सम्बन्धी भूल को स्वीकार नहीं करता और न उसे सुधारने की ओर उसका लक्ष्य ही होता है । यही कारण है, कि सम्यक् दृष्टि और मिथ्या दृष्टि के दृष्टिकोण में एक मौलिक भेद रहता है । इस भेद के कारण ही उनके आचरण में भी भेद हो जाता है। वस्तु सम्बन्धी विभ्रम ज्ञानावरण की विचित्र क्षयोपशमता का परिणाम है और आध्यात्मिक विपरीत दृष्टि दर्शनमोह का परिणाम है । अतएव सम्यक् दृष्टि को मति भ्रम हो सकता है, अध्यात्मिक अज्ञान नहीं। ____ मैं आपसे सम्यक् दर्शन की बात कह रहा था। सम्यक् दर्शन का वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में, विभिन्न प्रकार से किया गया है । किसी ग्रन्थ में जीव आदि नव पदार्थों के अथवा जोव आदि सप्त तत्वों के श्रद्धान को सम्यक् दर्शन कहा गया है। किसी ग्रन्थ में आप्त, आगम और धर्म के यथार्थ श्रद्धान को सम्यक् दर्शन कहा गया है। किसी ग्रन्थ में स्वानुभूति को सम्यक् दर्शन कहा गया है। किसी ग्रन्थ में स्व-परविवेक को अथवा भेद-विज्ञान को सम्यक दर्शन कहा गया है। व्याख्या और परिभाषा भिन्न-भिन्न होने पर भी उनमें केवल शाब्दिक भेद ही है, लक्ष्य सबका एक ही है और वह है जड़ से भिन्न चेतन की सत्ता पर आस्था करना । जीवन में और विशेषतः अध्यात्म जीवन में सम्यक् दर्शन का बहुत बड़ा महत्व है। सम्यक् दर्शन एक प्रकार से विवेक-रवि है, जिसके उदय होने पर मिथ्यात्व तमिस्रा का घोर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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