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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २४५
अन्धकार रहने नही पाता । मोक्ष रूप प्रासाद पर चढ़ने के लिए सम्यक् दर्शन प्रथम सोपान है । यदि एक व्यक्ति विविध प्रकार से तप करता है, विविध प्रकार के जप करता है, और विविध प्रकार की क्रिया-कलापों का अनुष्ठान करता है, किन्तु यदि उसके पास सम्यक् दर्शन नहीं है, तो इन सबसे उसके ससार को अभिवृद्धि ही होती है । यह सब अनुष्ठान संसार के कारण बन जाते हैं । सम्यक् दर्शन शब्द, दो शब्दों के मेल से बनता है - सम्यक् और दर्शन । प्रत्येक पदार्थ का जो स्वरूप है, उसे उसी रूप में प्रतिभान एवं विश्वास करना सम्यक् दर्शन कहा जाता है । हम यह देखते हैं, कि साधारण अवस्था में देह और देही, अलग-अलग प्रतीत नहीं होते, किन्तु सम्यक दर्शन की उपलब्धि होते ही, देह और देही का भेदविज्ञान प्राप्त हो जाता है । इस देह में निवास करने वाला देही, नित्य है एवं शाश्वत है, जबकि रह देह विनश्वर है एवं नाशवान है । संसार का यही सबसे बड़ा भेद-विज्ञान है । इस भेद-विज्ञान को बिना समझे सब कुछ समझकर भी, अनसमझा हो जाता है । सम्यक् दर्शन आत्म धर्म हैं, अतः वह आत्मा की सत्य प्रतीति से सम्बन्ध रखता है, चेतन और जड़ के पार्थक्य बोध से सम्बन्ध रखता है । सम्यक् दर्शन का चेतन तत्व से भिन्न किसी और से सम्बन्ध जोड़ना अनुचित है।
कितनी विचित्र बात है, कि आज का जन-मानस आत्म-धर्म की ओर से विमुख होता जा रहा है और रूढ़िधर्म की ओर उन्मुख होता जा रहा है । हम जो कुछ कहते हैं अथवा हमारे पोथी एवं पन्ने जो भी कुछ कहते हैं, वही सत्य है, इससे बढ़कर प्रतिक्रियावाद का नारा और क्या हो सकता है ? जब साधक आत्मधर्म को भूलकर रूढ़िधर्म को ओर झुक जाता है, तब वह आत्म-धर्मी न रहकर, पंथ धर्मी बन जाता है । वह आत्मा के धर्म में विश्वास न करके, अपने पंथ के धर्म में विश्वास करने लगता है, इसी को मैं प्रतिक्रियावाद कहता हूँ । प्रतिक्रियावाद भले ही किसी भी युग का क्यों न हो, किन्तु वह अपने आपमें कभी स्वस्थ नहीं होता । प्रतिक्रियावादी व्यक्ति अपने सम्प्रदाय एव अपने पंथ के अतिरिक्त जो कुछ भी सत्य एव उदात्तभाव है, उसे स्वीकार नहीं करता । मेरी दृष्टि में यही उसका सबसे बड़ा मिथ्यात्व का दृष्टिकोण है । दुनियादारी के ज्ञान से सम्यक् दर्शन का कोई वास्ता नहीं होता, किन्तु वह दुनियादारी के ज्ञान को ही सम्यक् दर्शन समझने
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