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________________ तीन प्रकार की चेतना | ३६६ सफल नहीं हो सका। मैं इस रहस्य को जानना चाहता हूँ, कि दिन में वह बटुआ आपके पास रहता है, किन्तु रात्रि में कहाँ चला जाता है ?" सेठ ने हँस कर कहा-“जिस दिन पहली बार तुम मुझे मिले, उसी दिन तुम्हारे मुख की आकृति देखकर मैं यह समझ गया था, कि तुम एक ठग हो । बात यह है, कि बटुआ कहीं जाता-आता नहीं था, फर्क इतना ही था, कि दिन में वह मेरी जेब में रहता था और रात्रि को वह तुम्हारी जेब में रहता था। मैंने यह सोच लिया था, कि ठग सदा दूसरे को जेब ही तलाश किया करता है, वह कभी अपनी जेब नहीं देखता, इसी विश्वास के आधार पर मैं यह हेरा-फेरी किया करता था ।" वस्तुतः यह परम सत्य है कि अपनी तलाश करना ठग का काम नहीं साहकार का काम है । ठग को सदा अपनी जेब खाली लगती है और दूसरों की जेब भरी हुई लगती है, क्योंकि उसकी दृष्टि पर में रहती है । जिसकी दृष्टि अपने पर न रह कर दूसरे पर रहती है, उसे सत्य का बटुआ कैसे मिल सकता है ? सेठ के जीवन में जो घटना घटी और उससे जो सिद्धान्त निकला है, वही सिद्धान्त आध्यात्मिक जीवन पर भी लागू होता है। यह आत्मा जब तक पर परिणति में रहता है, तब तक इसे सच्चा सुख और आनन्द प्राप्त नहीं होता। अनादिकाल से मिथ्या दृष्टि आत्मा पर पदार्थों में सुख की गवेषणा करता रहा है, उन्हीं के पीछे दौड़ता रहा है तथा स्वयं को कंगाल एवं भिखारी समझता रहा है । मिथ्या दृष्टि का लक्ष्य दूसरों की जेब तलाश करने का रहता है और सम्यक् दृष्टि की दृष्टि अपने जेब में हाथ डालने और खोज करने की रहती है। सम्यक दृष्टि सोचता है, कि जिस आनन्द की खोज, मैं करता है, वह कही बाहर में नहीं, मेरे अन्दर में है । मैं ऐश्वर्यशाली हूँ, मैं परम सौभाग्यशाली हूँ, मेरे पास क्या नहीं है, मेरे पास सब कुछ है। मेरे पास अनन्तज्ञान है, मेरे पास अनन्त दर्शन है, मेरे पास अनन्त सुख है और मेरे पास अनन्तशक्ति हैं फिर मैं अपने आपको भिखारी क्यों समझें, मैं अपने आपको कंगाल क्यों समझं? यह अध्यात्म दृष्टि जब तक जीवन में नहीं आती है, तब तक जीवन में आनन्द और सुख की प्राप्ति अथवा उपलब्धि नहीं हो सकती है। तीसरी जान चेतता है । ज्ञान चेतना में साधक संसार से पराङ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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