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________________ २५४ | अध्यात्म प्रवचन को भी लोग सम्यक् दर्शन की संज्ञा देते हैं । यह बड़े ही विचार की बात है, कि ये लोग वस्तु की उपयोगिता को न देखकर उसकी प्राचीनता को ही अधिक देखते हैं । मेरे विचार में कोई सिद्धान्त प्राचीन होने से ही ग्राह्य हो, यह बात गलत है । और कोई विचार नवीन होने से ही अग्राह्य हो, यह भी गलत है । मेरे विचार में न प्राचीनता का महत्व है और न अर्वाचीनता का महत्व है । जो वस्तु समीचीन हो और जो विचार यथार्थ हो, उसे अवश्य ही ग्रहण करना चाहिए, फिर भले ही वह प्राचीन हो अथवा अर्वाचीन हो । नूतनता एवं पुरातनता, प्राचीनता एवं अर्वाचीनता अपने आप में कुछ महत्व नहीं रखती हैं, क्यों कि यह तो एक कालकृत भेद ही है । यदि नवीनता की पूजा को पंथवादी लोग पाप समझते हैं, अधर्म समझते हैं अथवा मिथ्यात्व समझते हैं, तो प्राचीनता की पूजा भी उसी प्रकार पाप है, अधर्म है और मिथ्यात्व है । क्योंकि प्राचीनता और नवीनता दोनों ही काल के विभाग हैं और काल एक जड़ वस्तु है । मेरे विचार में समीचीनता की पूजा ही सच्चा सम्यक् दर्शन है । किसी भी एकान्तवाद का आग्रह करना, जिन शासन में मिथ्यात्व माना गया है । फिर भी यह सत्य है, कि सम्प्रदायवादी एवं पंथवादी मनुष्य के मन में पुरातनता का व्यामोह, इतना रूढ़ हो जाता हैं, कि अच्छी से अच्छी बात को भी वह नवीनता के नाम पर ग्रहण करने को तैयार नहीं होता । अपनी बुद्धि और विवेक को ताक पर रखकर पंथवादी व्यक्ति प्रत्येक नवीन विचार का विरोध करने में अपने जीवन की समग्र शक्ति को लगा देता है और निरन्तर आधुनिकता के नाम पर दूसरों की निन्दा और अवगणना ही करता रहता है । उस मूढ़ व्यक्ति की यह परिज्ञान नहीं होता, कि पुरातन होने मात्र से कोई विचार अच्छा और नूतन मात्र होने से कोई विचार बुरा नहीं कहा जा सकता, यदि नूतनता सर्वथा बुरी ही वस्तु है और पुरातनता ही एकमात्र अच्छी वस्तु है, तो मिथ्यात्व सदा प्राचीन होता है, वह आज का नहीं अनादि से चला आ रहा है, और सम्यक् दर्शन की उपलब्धि नवीन होती है । तब क्या प्राचीन होने से मिथ्यात्व को पकड़े रहें, और नवीन होने से सम्यक् दर्शन का परित्याग कर दें ? पापाचार बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है, तो प्राचीनता - प्रेमी उसे क्यों छोड़ने का प्रयत्न करते हैं । प्राचीनता का मोह एक प्रकार की मूढ़ता एवं बुद्धि - जड़ता का ही प्रतीक है । यह सत्य है, कि नवीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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