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________________ पंथवादी सम्यक् दर्शन | २५३ घटित हो सकती है ? भोजन पान आदि की क्रियाओं के समय साधुत्व का अभाव माना जाए तो फिर एक दिन भी साधुत्व का छठा गुण स्थान नहीं रह सकता। बाहर में कुछ भी हो, अन्दर स्वरूप ज्योति अखण्ड रूप से जलती रहती है, वह ज्योति कभी व्यक्त रूप से बुद्धि की पकड़ में आती है और कभी नहीं भी आती है। परन्तु अन्दर में वह अव्यक्त रूप से सतत प्रज्वलित रहती है। यही बात सम्यक् दर्शन के सम्बन्ध में भी है। ___मैं आपसे सम्यक् दर्शन की चर्चा कर रहा था। सम्यक् दर्शन अंतरंग की वस्तु है, बाहर की वस्तु नहीं, परन्तु पंथवादी लोगों ने इसे बाहर की वस्तु बना दिया है । एक पंथवादी मनुष्य यह कहता है, कि मेरे पंथ के अनुसार सोचना और मेरे पंथ के अनुसार आचरण करना ही, सम्यक् दर्शन है। इसलिए एक सम्प्रदाय ने दूसरे को मिथ्यात्वी करार दे दिया। पंथवाद इतना फैला, कि श्वेताम्बर और दिगम्बर परस्पर एक दूसरे को मिथ्या दृष्टि कहने लगे। इस प्रकार के उल्लेख आज भी अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। प्राचीन युग में पंथवादी लोग प्रत्येक नवीन जैसे लगने वाले सत्य का विरोध करते रहे हैं और वर्तमान में भी कर रहे हैं। उनकी दृष्टि में जो कुछ प्राचीन है वही सम्यक् दर्शन है, और जो कुछ नवीन है वह मिथ्या. दर्शन है। भले ही नवीन विचार कितना भी उपयोगी क्यों न हो, किन्तु वे उसे ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं होते। इसके विपरीत प्राचीन विचार भले ही आज की स्थिति में कितना ही अनुपयोगी क्यों न बन गया हो, किन्तु फिर भी वे उसका परित्याग नहीं कर सकते । जिस प्रकार किसी व्यक्ति को अपने पुरखों की पुरानी वस्तु से व्यामोह हो जाता है, उसी प्रकार कुछ लोगों को प्राचीनता का इतना व्यामोह हो जाता है कि वे हर चीज को प्राचीनता की तुला पर तोलने के आदी बन जाते है। अनन्त सत्य को वह अपनी सीमित बुद्धि में सीमित करना चाहते हैं। जो कुछ सत्य है वह हमारा है, यह विचार तो ठीक है, किन्तु सम्प्रदाय वादी इसके विपरीत यह कहता है, कि जो मेरा है, वही सत्य है । जो कुछ मेरे पंथ का विचार है, वही सच्चा विचार है। जो कुछ मेरे पंथ का विश्वास है, वही सच्चा सम्यक् दर्शन है । जो कुछ मेरे पंथ का आचार है, वही सच्चा धर्म है । यह एक प्रकार की विचार जड़ता है। इस विचार जड़ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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