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________________ १३२ | अध्यात्म प्रवचन के दुःख और स्वर्ग के सुख पवित्रता प्रदान नहीं कर सकते, जिस प्रकार दुःख आत्मा का एक मलिन भाव है, उसी प्रकार सुख भी आत्मा का एक मलिन भाव ही है । भले ही सुख जीव को प्रिय रहा हो और दुःख जीव को अप्रिय रहा हो, किन्तु सुख और दुःख आखिर दोनों ही, चेतना के मलिन भाव हैं। चेतना की मलिनता को दूर करने का एक मात्र साधन, यदि कोई हो सकता है, तो वह सम्यक् दर्शन ही है। यदि आप अध्यात्म-साधना के मन्दिर में प्रवेश करके आत्म- देवता की पूजा एवं उपासना करना चाहते हैं, तो उस मन्दिर में प्रवेश करने के लिए आपको सम्यक् दर्शन के द्वार से ही प्रवेश करना होगा । यदि सम्यक् दर्शन का प्रकाश अन्तरहृदय और आत्मा में जगमगा उठा है, और अपने सहज स्वरूप एवं शक्ति की पहचान हो गई है, तो फिर जीवन में किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता । सम्यक् दर्शन को पाकर भयभीत आत्मा अभय हो जाता है । भय आत्मा का एक विकार है । जब तक साधक के जीवन में भय का सद्भाव है, तब तक निश्चय ही यह नहीं कहा जा सकता कि उसने सम्यक् दर्शन को प्राप्त कर लिया है । निश्चय ही जिसने सम्यक् दर्शन के दिव्य आलोक को प्राप्त कर लिया है, उसके जीवन में किसी प्रकार का भय नहीं रह सकता । अतः सम्यक् दर्शन की साधना अभय की साधना है । कदम-कदम पर भयभीत होने वाला साधक अपनी साधना में कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता, साधना के दिव्य पथ पर वह बहुत आगे नहीं बढ़ सकता । मोक्ष की साधना में सबसे पहली शर्त है, निर्भय होने को और निर्भयता का जन्म सम्यक् दर्शन से ही होता है । आत्मा अनादिकाल से चिद् रूप में सदा एक सा रहा है । वह कभी जीव से अजीव और चेतन से जड़ नहीं बना है । उसके स्वरूप में कभी कोई कमी नहीं हुई । उसका एक अंश भी कभी बना और बिगड़ा नहीं है । जीव सदा से जीव ही रहा है, आत्मा सदा से आत्मा ही रहा है । आत्मा कभी अनात्मा नहीं बन सकता और अनात्मा भी कभी आत्मा नहीं बन सकता । फिर न मालूम जीवन में कमी किस बात की है कि यह संसारी आत्मा क्यों रोता एवं बिलखता है ? आत्मा को अजन्मा और अविनाशी मान लेने पर जीवन में किसी प्रकार का अभाव नहीं रहना चाहिए, फिर भी न जाने क्यों यह मनुष्य भटकता ही रहता है । दो ही बातें हो सकती हैं, या तो उसे अपनी आत्मा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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