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३४ | अध्यात्म-प्रवचन
उसका निराकरण भी अवश्य किया जा सकता है । कल्पना कीजिएकिसी को दूध गरम करना है । तब क्या होगा ? दूध को पात्र में डालकर अँगीठी पर रख देना होगा और उसके नीचे आग जला देनी होगी । कुछ काल बाद दूध गरम होगा, उसमें उबाल आ जाएगा । दूध का उबलना तब तक चालू रहेगा, जब तक कि उसके नीचे आग जल रही है । नीचे की आग भी जलती रहे और दूध का उबलना वन्द हो जाए, यह कैसे हो सकता है ? उष्णता का कारण आग है और जब तक वह नीचे जल रही है, तब तक दूध के उबाल और उफान को शान्त करना है, तो उसका उपाय यह नही है कि दो-चार पानी के छींटे दे दिए जाएँ और बस ! अपितु उसका वास्तविक उपाय यही है, कि नीचे जलने वाली आग को या तो बुझा दिया जाए या उसे नीचे से निकाल दिया जाय । इसी प्रकार अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में दुःख को दूर करने का, उस दुःख को दूर करने का जो आदिहीन काल से आत्मा में रहा है, वास्तविक उपाय यही है, कि उसे केवल ऊपरी सतह से दूर करने की अपेक्षा उसके मूल कारण का ही उच्छेद कर दिया जाए । मानव-जीवन में दुःख एवं क्लेश की सत्ता एवं स्थिति इस तथ्य एवं सत्य को प्रमाणित करती है, कि दुःख का मूल कारण अन्यत्र नहीं, हमारे अन्दर ही है । जब तक उसे दूर नहीं किया जाएगा, दुःख की ज्वाला कभी शान्त नहीं होगी । अध्यात्मवादी दर्शन कहता है - दुःख है, क्योंकि दुःख का कारण है । और वह कारण बाहर में नहीं, स्वयं तुम्हारे अन्दर में है । दुःख के कारण का उच्छेद कर देने पर दुःख का उबाल और उफान स्वतः ही शान्त हो जाएगा । तब दुःख का अस्तित्व समाप्त होकर सहज और निर्मल आनन्द का अमृत सागर ठाठें मारने लगेगा ।
शरीर में रोग होता है, तभी उसका इलाज किया जा सकता है । रोग होगा, तो रोग का इलाज भी अवश्य होगा । यदि कोई रोगी वैद्य के पास आए और वैद्य उसे यह कह दे कि आपके शरीर में कोई रोग नहीं है, तो उसका यह कथन गलत होगा । शरीर में यदि रोग की सत्ता और स्थिति है, तो उसे स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है । शरीर में रोग की सत्ता स्वीकार करने पर भी यदि वैद्य यह कहता है, रोग तो है, किन्तु उसका इलाज नहीं हो सकता, तो यह भी गलत है । जब रोग है तब उसका इलाज क्यों नहीं हो सकता ? संसार का कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति इस तर्क को स्वीकार नहीं कर
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