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________________ जैन- दर्शन का मूल : सम्यक् दर्शन | २८६ दुःख सहन करता है । परन्तु धन से भी अधिक प्रिय उसे अपने प्राण होते हैं । जिनकी रक्षा के लिए वह अपने धन का भी परित्याग कर देता है । तीनों मित्रों में से एक तो डाकुओं को देखते ही पीछे की ओर भाग गया। दूसरा मित्र कुछ साहसी था, इसलिए साहस करके वह आगे तो बढ़ गया, किन्तु अकेला उन चारों का प्रतिकार एवं पराभव न कर सकने के कारण, उनकी पकड़ में आ गया। तीसरा मित्र उन दोनों से अधिक बलवान और पराक्रमशील था । उसने अकेले ही चारों से संघर्ष किया और अपनी 'शक्ति और अपने पराक्रम से उन्हें पराजित करके दुर्गम घाटी को पार करता हुआ अपने अभीष्ट लक्ष्य पर पहुँच गया । आपने सुना कि तीन मित्रों की तीन स्थिति हुई । एक भाग गया, एक पकड़ा गया, और एक पार हो गया । यह एक रूपक है, यह एक दृष्टान्त है, जिसके आधार पर शास्त्र के गम्भीर मर्म को समझने में सहारा मिलता है। जो स्थिति उन तीन मित्रों की हुई, वही स्थिति आत्मा को भी होती है । संसार में अनन्त आत्माएँ हैं, उनमें से कुछ विकास -पय पर आरूढ़ होकर अपने अभीष्ट लक्ष्य की ओर चल पड़ती हैं, किन्तु उन तीन मित्रों के समान कुछ आत्माएँ, चार कषायों की ग्रन्थि रूप भयंकरता के कारण वापिस लौट जाती हैं, और संसार में भटकने लगती हैं । कुछ आत्माएँ साहस करके आगे बढ़ती हैं, किन्तु अपनी दुर्बलता के कारण वे भी कषायों से ग्रस्त हो जाती हैं और कुछ आत्माएँ इतनी प्रबल होती हैं, कि वे अपने साहस और पराक्रम के बल पर आगे बढ़कर कषाय रूप डाकुओं को पराजित करके, अपने अभीष्ट लक्ष्य पर पहुँच जाती हैं । अभीष्ट लक्ष्य पर पहुँचने का क्या अर्थ है ? यही कि वह मिथ्यात्व से निकल कर सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेती हैं । वे अन्धकार से निकलकर प्रकाश में पहुँच जाती हैं । शास्त्र में इसी तथ्य को सम्यक् दर्शन की उपलब्धि कहा गया है । मैं आपसे सम्यक दर्शन की बात कह रहा था । सम्यक् दर्शन क्या है ? यह एक विकट प्रश्न है । सम्यक्दर्शन, जैसा कि मैंने आपको कहा, चिन्तन का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है । परन्तु इतना अवश्य है, कि समग्र धर्मों का मूल यदि कोई एक तत्व हो सकता है, तो वह सम्यक् दर्शन ही हो सकता है । जैसे मूल के अभाव में कोई भी वृक्ष अधिक दिनों तक स्थिर नहीं रह सकता, वैसे ही सम्यक् दर्शन के अभाव में कोई भी धर्म स्थिर नहीं रह सकता । जैन दर्शन का मूल सम्यक् दर्शन ही है । जिस प्रकार समग्र वृक्ष की प्राण-शक्ति का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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