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________________ २६० | अध्यात्म-प्रवचन आधार और केन्द्र, उसकी जड़ होती है, उसी प्रकार जैन दर्शन का मूल सम्यक् दर्शन है । वृक्ष के मूल एवं जड़ के कारण हो वृक्ष की सारी पत्तियाँ हरी-भरी रहती हैं, उसमें फल-फूल लगते हैं और वह वृक्ष विकासोन्मुख बना रहता है, परन्तु यह तभी तक है, जब तक कि वृक्ष का मूल एवं वृक्ष की जड़ हरी भरी बनी रहती है। जब तक वृक्ष की जड़ सशक्त है, तभी तक उसमें नयी-नयी कोपलें फूटती रहती हैं, नयेनये पत्ते आते रहते हैं, उस पर फूलों की मधुर मुस्कान बनी रहती है और उस पर मधुर फल लगते रहते हैं। अतः वृक्ष की प्राण-शक्ति, उसका वैभव, उसका सौन्दर्य एवं उसके विकास का मूलाधार उसकी जड़ होती है, जो भूमि के अन्दर बहुत गहरी होती है। जो सत्य एक वृक्ष के सम्बन्ध में है, वही सत्य अध्यात्म-साधना के सम्बन्ध में भी है । अध्यात्मवादी दर्शन के अनुसार अध्यात्म-साधना का मूल आधार सम्यक् दर्शन ही है । सम्यक् दर्शन से ही अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्य आदि व्रत फलते-फूलते हैं । श्रावक-जीवन की मर्यादा का मूल आधार भी सम्यक् दर्शन ही है । इसी के आधार पर श्रावक का जीवन निर्मल एवं स्वच्छ रहता है । साधु-जीवन के व्रत एवं नियमों का आधार भी यही सम्यक् दर्शन है । यदि सम्यक् दर्शन नहीं है, तो साधुत्व भाव भी उसमें कैसे रह सकता है ? किसी भी साधक के अन्तरंग में जब तक सम्यक दर्शन की ज्योति है और जब तक उसके जीवन के कण-कण में सम्यक दर्शन की भावना परिव्याप्त रहती है, तब तक धर्म का वृक्ष हरा-भरा रहता है और फलता-फूलता रहता है । यह तो आपको पता ही है, कि वृक्ष में प्रति वर्ष परिवर्तन आता रहता है और यह परिवर्तन उसके जीवन के विकास के लिए आवश्यक भी है। वक्ष में प्रतिवर्ष नये पत्ते आते रहते हैं और पुराने पत्ते झड़ते जाते हैं; नये फूल आते हैं और पुराने फूल समाप्त हो जाते हैं और नये फल आते हैं तथा पुराने फल क्षीण हो जाते हैं, यह परिवर्तन वृक्ष में प्रति वर्ष आता है, परन्तु इस परिवर्तन के होते हुए भी उसकी जड़ ज्यों की त्यों बनी रहती है। इसी प्रकार आचार से सम्बन्धित बाहर के नियमउपनियम बदलते रहते हैं, परन्तु उनका मूलाधार जो सम्यक् दर्शन है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। धर्म और साधना के क्षेत्र में युग और काल-क्रम से बाहर के नियम एवं उपनियमों में परिवर्तन आता है, परन्तु धर्म के मूलाधार में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । यह जो कुछ परिवर्तन बाहर के नियम एवं उपनियमों में होता रहता है, इससे किसी प्रकार की हानि नहीं हा सकती, यदि मूल शुद्ध एवं पवित्र है तो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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