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सम्यक् दर्शन की महिमा | १६५
न कभी बदला है और न अनन्त भविष्य में ही कभी बदल सकेगा । उसमें एक समय मात्र के लिए भी न कभी परिवर्तन आया है और न -कभी परिवर्तन आयेगा । मेरे कथन का अभिप्राय यह है, कि यह जीव चाहे निगोद की स्थिति में रहे, चाहे सिद्ध की स्थिति में रहे, जीव - सदा जीव ही रहता है, वह कभी अजीव नहीं होता । यह त्रिकाली भाव है, अतः जीव के जीवत्वभाव में अणुमात्र भी परिवर्तन नहीं हो सकता | प्रश्न है कि किस कर्म के उदय से जीव जीव है ? अध्यात्मशास्त्र उक्त प्रश्न का एक ही समाधान देता है, कि जीव का जीवत्व - भाव किसी भी कर्म के उदय का फल नहीं हैं। जीव का जीवत्वभाव उसका त्रिकाली ध्रुव स्वभाव है। इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन हो ही नहीं सकता । जीव का यह त्रिकाली ध्रुव स्वभाव किसी भी कर्म के उदय का फल नहीं है । यदि वह किसी कर्म के उदय का फल होता तो फिर वह त्रिकाली नहीं हो सकता था । कर्मों के उदय से गति, जाति और इन्द्रिय आदि प्राप्त होते हैं । परन्तु जीव का जीवत्व भाव सदा और सर्वदा एकरस रहने वाला है । अतः किसी कर्म - के उपशम, क्षयोपशम एवं क्षय से भी जीव का जीवत्व नहीं होता है । यह ध्रुव सत्य है कि जीव का जीवत्व भाव अनादि काल से है और वह जीव का सहज स्वभावी परिणाम है और वह परिणाम है उसका चैतन्य स्वरूप । यही उसका वास्तविक स्वरूप है। शुद्ध निश्चय नय की भाषा में इसी को आत्मा का त्रिकाली ध्रुव स्वभाव कहा गया है और शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से, यह त्रिकाली ध्रुव स्वभाव, विश्व की किसी एक ही आत्मा का नहीं, अपितु विश्व की समग्र एवं अनन्त आत्माओं का स्वभाव है ।
मैं आपसे शुद्ध निश्चय नय एवं भूतार्थ नय की चर्चा कर रहा था और यह बता रहा था, कि किस प्रकार निश्चय नय की दृष्टि में विश्व की समग्र आत्माएँ एक जैसी एवं समान हैं। भले ही व्यक्ति रूप में वे अलग-अलग रहें, किन्तु स्वरूप की दृष्टि से उनमें किसी भी प्रकार का भेद नहीं है। एक निगोद में रहने वाले जीव की आत्मा का शुद्ध निश्चय से जो स्वरूप है, वही स्वरूप एक तीर्थंकर की आत्मा का भी है और मोक्ष प्राप्त सिद्ध की आत्मा का भी वही स्वरूप है | इसलिए शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में तीर्थंकर, सिद्ध आदि और निगोद आदि में रहने वाले भी सभी अनन्तजीव शुद्ध हैं, कोई अशुद्ध नहीं है ।
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