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________________ १९४ | अध्यात्म-प्रवचन स्वरूप है । जो जीव है वही जिनवर है और जो जिनवर है, वह जीव है । जीव के अतिरिक्त एवं चेतन से भिन्न, मैं अन्य कुछ भी नहीं हूँ । न मैं भूमि हूँ । न मैं जल हूँ । न मैं अग्नि हूँ । न मैं वायु हूँ। क्योंकि यह सब भौतिक हैं और मैं अभौतिक है । कान, नाक, आँख आदि इन्द्रिय भी मैं नहीं हैं । मैं मन भी नहीं हूँ । इन सबसे परे और इन सबसे ऊपर मैं एक चैतन्य शक्ति हूँ । आत्मा में इस प्रकार का भान और श्रद्धान का होना ही सच्चा सम्यक् दर्शन है । भूतार्थ नय से मैं ज्ञायक स्वभाव हूँ । द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि में विश्व की प्रत्येक आत्मा अपनी उपादान शक्ति से सिद्धस्वरूप है । इसी को परम पारिणामिक भाव का दर्शन एवं सम्यक् दर्शन कहते हैं । अपनी आत्म-ज्योति में आस्था ही सम्यक् दर्शन है । प्रश्न होता है, कि भूतार्थं नय से एवं निश्चय नय से गुण पर्यायभेदरहित केवल विशुद्ध आत्मद्रव्य में ही आस्था रखना जब सम्यक् दर्शन है, तब उससे भिन्न पर्यायनयापेक्षित जीव की जो संसारी अवस्था है, वह क्या है ? क्या इस दशा मैं जीव जीव नहीं रहता ? प्रश्न बड़ा ही विकट है । संसारी अवस्था में रहने वाले जीव को भी जीव ही कहा जाएगा, परन्तु याद रखिए, यह सब संसारी अवस्थाएँ अभूतार्थ व्यवहारनय पर आश्रित हैं । अशुद्ध नय से जब आत्म-तत्व पर विचार किया जाता है, तब जाति, इन्द्रिय, मन, मार्गणा एवं गुण-स्थान आदि सब जीव की अशुद्ध दशा हैं । निगोद से लेकर तीर्थंकर तक, तथा प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्दश गुणस्थान तक के जीव सभी अशुद्ध हैं | यदि इस दृष्टि से देखा जाता है, तो सारा संसार अशुद्ध ही अशुद्ध नजर आता है । यह स्थिति अशुद्ध नय की एवं व्यवहारनय की होती है | आप लोग इस तथ्य को न भूलें, कि मोक्ष जाने से पूर्व तेरहवें गुणस्थान एवं चौदहवें गुणस्थान को भी अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा । क्योंकि एक दिन ये गुणस्थान प्राप्त किए जाते हैं और एक दिन इन्हें छोड़ा भी जाता है । मैं मानता हूँ कि प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान अत्यन्त विशुद्ध है, फिर भी इनमें कुछ न कुछ अशुद्धि रहती ही है, क्योंकि जब तक कर्म है, तब तक उसका उदय भाव भी अवश्य रहेगा, और जब उदय-भाव है, तब तक वहाँ किसी न किसी प्रकार की अशुद्धि भी रहती ही है । इस दृष्टि से मैं यह कह रहा था कि मार्गणा और गुणस्थान जीव के स्वाभाविक परिणाम नहीं है । परन्तु इन सबके अतिरिक्त एक तत्त्व ऐसा है, जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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