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मुक्ति का मार्ग | २१ जाती है, परमात्मा बन जाती है । अध्यात्मवादी दर्शन आत्मा की शुद्ध अवस्था की ओर अपने लक्ष्य को स्थिर करता है । जैन दर्शन में कहा है कि विश्व की प्रत्येक आत्मा अपने मूल स्वरूप में वैसी नहीं है, जैसी कि वर्तमान में दृष्टिगोचर होती है । यह तो केवल व्यवहार नय है । शुद्ध निश्चय नय से तो प्रत्येक आत्मा ज्ञान- स्वरूप और परमात्मस्वरूप है । निश्चय नय से संसारस्थ आत्मा में और सिद्ध आत्मा में अणु मात्र भी भेद नहीं है । जो कुछ भेद है वह औपाधिक है, कर्मप्रकृति के संयोग से है । अतः प्रत्येक आत्मा को यह विश्वास करना चाहिए कि भले ही आज मैं बद्ध-दशा में हूँ, किन्तु एक दिन मैं मुक्तदशा को भी प्राप्त कर सकता हूँ, क्योंकि आत्मा चैतन्य स्वरूप है और उस चैतन्य स्वरूप आत्मा में अनन्त - अनन्त शक्ति है । आवश्यकता शक्ति की उत्पत्ति की नहीं, अपितु शक्ति की अभिव्यक्ति की है ।
जब भी कोई रोती एवं बिलखती आत्मा सद्गुरु के समक्ष हतास और निराश होकर खड़ी हुई, तब भारत के प्रत्येक सद्गुरु ने उसके आँसुओं को पोंछकर उसे स्वस्वरूप की शक्ति को जागृत करने की दिशा में अमोघ सांत्वना एवं प्रेरणा दी है । साधना के मार्ग पर लड़खड़ाते पंगु मन को केवल बाह्य क्रियाकलापरूप लाठी का सहारा ही नहीं दिया गया, बल्कि इधर-उधर की पराश्रित भावना की वैसाखी छुड़ाकर उसमें अध्यात्म मार्ग पर दौड़ लगाने की एक अद्भुत शक्ति भी जागृत कर दी । सद्गुरु ने उस दीन-हीन आत्मा की प्रसुप्त शक्ति को जागृत करके उसे भिखारी से सम्राट बना दिया । उस दीन एवं हीन आत्मा को, जो अपने अन्दर अनन्त शक्ति होते हुए भी विलाप करता था, अध्यात्म-भाव की मधुर प्रेरणा देकर इतना अधिक शक्तिसम्पन्न बना दिया, कि वह स्वयं ही सन्मार्ग पर नहीं अग्रसर हो गया, बल्कि दूसरों को भी सन्मार्ग पर लाने के प्रयत्न में सफल होने लगा ।
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राजा प्रदेशी की जीवन-गाथा को सुनकर ग्लानि भी होती है और आश्चर्य भी । ग्लानि इस अर्थ में कि जिस समय राजा प्रदेशी की शास्त्र अंकित जीवन-गाथा को पढ़ते एवं सुनते हैं, तब उसका वह रौद्र रूप हमारी आँखों के सामने आ खड़ा होता है, जिसमें तलवार लेकर वह प्राणियों का वध इतनी निर्दयता के साथ करता है कि कुहनी तक दोनों हाथ खून से रंग जाते हैं, फिर भी वह प्राणि-वध से विरत नहीं होता । उसने अपने जीवन में अगणित पशु-पक्षी और मनुष्यों का वध किया । दया और करुणा क्या है, यह कभी स्वप्न में भी उसने समझने
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