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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २६६ एक बिन्दु में भी भयंकर से भयंकर तृषा के दाह को शान्त करने का अपार सामर्थ्य है, उसमें रह कर भी अगर कोई प्यासा रहता है, तो इसमें क्षीरसागर का क्या दोष है ? वसन्त-समय आने पर, जब कि प्रकृति के कण कण में आमोद और प्रमोद परिव्याप्त हो जाता है, और जब वनस्पति-जगत के कण-कण में नव जीवन, नव जागरण और नव स्फूर्ति अंगड़ाई लेने लगती है, तथा जब प्रकृति-सुन्दरी नवकिसलय
और नव पुष्पों का परिधान पहन कर हजारों हजार रूपों में अभिव्यक्त होती है, यदि समद्धि के उस काल में भी करील वृक्ष पर नवकिसलय नहीं आते, तो इसमें वसन्त का दोष ही क्या? अनन्त आनन्द
और असीमित सुख के आधारभूत आत्म-तत्व को पाकर भी, जिसका मिथ्यात्व दूर न हो सका और जिसका अज्ञान दूर न हो सका, तथा जिसमें स्वयं जागरण की बुद्धि नहीं है, उस मोह-मुग्ध आत्मा को कौन जगा सकता है ? मैं कह रहा था आपसे, कि आपको जो कुछ पाना है. उसे आप अपने अन्दर से ही प्राप्त कीजिए। बाहर की आशा मत कीजिए । बाहर की आशा की कभी पूर्ति नहीं हो सकेगी। जो कुछ बाहर का है, वह कभी स्थायी नहीं हो सकता। जो कुछ अपना है, वही शाश्वत होता है। तुम्हें जो कुछ चाहिए, वह अपने अन्दर से प्राप्त करो, अपने अन्तर का अनुसन्धान करो, वहाँ सब कुछ मिल सकेगा, सुख भी, आनन्द भी और शान्ति भी। - इस सम्बन्ध में मुझे भारतीय संस्कृति का एक अत्यन्त प्राचीन उपाख्यान स्मरण में आ रहा है, जिसमें भारत की आत्मा का यथार्थ दर्शन होता है और जिसमें भारतीय दर्शन और धर्म, वास्तविक रूप में प्रतिभासित और प्रतिबिम्बित हुआ है। वह उपाख्यान इस प्रकार है कि-एक था गरीब ब्राह्मण । वह अत्यन्त दरिद्र था और उसकी धनहीनता सदा उसे व्याकुल बनाए रहती थी। धन की अभिलाषा में उसने वह सब कुछ किया, जो कुछ उसे नहीं करना चाहिए था। फिर भी धन उसे अधिगत नहीं हो सका। धन की अभिलाषा में वह वर्षों तक पर्वत, नदी एवं जंगलों में घूमता फिरता रहा, किन्तु उसके भाग्य के द्वार नहीं खुले । एक दिन वृक्ष के नीचे वह हताश निराश और उदास बनकर शिला पर बैठा हुआ था, कि सहसा उसी विकट वन में साधना करने वाले एक योगी और सिद्ध का दर्शन हुआ । उसने उस योगी एवं सिद्ध पुरुष से कहा-"बहत वर्षों की साध आज पूरी हुई है। मुझे विश्वास है, कि आप जैसे सिद्धपुरुषों के दर्शन कभी
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