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________________ २६८ | अध्यात्म-प्रवचन और खोज करते-करते अन्त में उसने पाया कि मैं जिसकी खोज कर रहा था, वह मेरे ही अन्दर में है, बल्कि वह मैं स्वयं ही हूँ । इस प्रकार भारत का अध्यात्मवादी दर्शन एक महत्वपूर्ण केन्द्र को पकड़ने का प्रयत्न करता है। उसने स्वर्ग और मुक्ति का दर्शन बाहर नहीं, बल्कि अपने अन्दर में ही किया है। मुक्ति का अनन्तप्रकाश और आत्म-तत्व का अनन्तप्रकाश का प्रवाह अन्तर में ही प्रवाहित होता रहा है, वह कहीं बाहर में नहीं है, उसे बाहर में खोजना एक भयंकर भूल है। आत्म-तत्व किसी समय-विशेष में और अवस्था-विशेष में बद्ध रहने वाली वस्तु नहीं है। वह सदा एक रूप है, एक रस है और वह है उसका चैतन्य भाव । जिस प्रकार स्वर्ण-पिंजर में रहने वाले पक्षी में और लोह-पिंजर में रहने वाले पक्षी में मूलतः एवं स्वरूपतः कोई भेद नहीं होता, उसी प्रकार संसारी अवस्था में भी, आत्मा आत्मा ही रहता है और सिद्ध-अवस्था में भी आत्मा, आत्मा हो रहता है। यह उसका त्रिकालो ध्रुव स्वभाव है। यह एक ऐसा स्वभाव है-जो न कभी मिटा है, न कभी मिट सकेगा। ... मनुष्य जब दीन-हीन बनकर संसार के सुख के लिए द्वार-द्वार पर भीख माँगता है और जब वह जीवन के सुख और स्वर्ग के लिए मांग करता है, तब भारतीय दर्शन कहता है, आनन्द की खोज में तू कहाँ भटक रहा है ? वह सुख, वह स्वर्ग और वह मुक्ति, जिसकी खोज में तू बाहर भटक रहा है, वह बाहर नहीं, तेरे अन्दर ही है, किन्तु तुझे उसका परिज्ञान नहीं है। अपनी शक्ति और अपनी सत्ता का वास्तविक परिबोध न होने के कारण ही यह संसारी आत्मा बाह्य पदार्थों से सुख प्राप्त करने की अभिलापा करता है। यह तो वही स्थिति है, जैसे किसी दरिद्र के घर के कोने में चिन्तामणि रत्न पड़ा हो, जिसमें दरिद्रता को चकनाचूर करने की अपार शक्ति एवं सामर्थ्य है, किन्तु उसकी शक्ति एवं सत्ता का यथार्थ परिबोध न होने के कारण ही वह दरिद्र, जीवन भर दरिद्र बना रहता है। इस देह रूप घर में चिन्तामणि रत्न रूप आत्मा छपा हुआ है, जो सुख और आनन्द का अक्षय निधि है एवं अपार महासागर है । परन्तु उसकी शक्ति और सत्ता का वास्तविक परिज्ञान न होने के कारण ही मनुष्य बाहर के तुच्छ पदार्थों में तुच्छ सुख की अभिलाषा करता है । क्षीर महासागर में रहने वाला और रात दिन किलोल करने वाला मच्छ यदि तृषाकुल रहता है, तो यह उसका परम दुर्भाग्य ही है। जिस क्षीर सागर के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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