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________________ अध्यात्म साधना | ७३ है-हम जीवन का तथ्य उसे कहते हैं, जिसके आधार से जीवन टिका हुआ है। जीवन का यह तथ्य जब मन एवं मस्तिष्क की गहराई से बाहर निकलकर जीवन की समतल धरती पर नित्य निरन्तर प्रवाहित होने लगता है, तब जीवन हरा-भरा हो जाता है, फिर वह विपन्न नहीं रहता, पूर्ण सम्पन्न बन जाता है। जीवन के गुप्त रहस्यों को खोजने के लिए कभी-कभी बाहरी साधनों की भी आवश्यकता हो जाती है। मैं देखता हैं कि कुछ चीजों को विकसित होने के लिए बाहरी सहायता की आवश्यकता रहती है। परन्तु यह सर्वाधिक नियम नहीं है। कुछ को बाहरी सहायता की आवश्यकता नहीं भी रहती। __ कल्पना कीजिए, आपके सामने एक ढोल रखा है। वह चुपचाप पड़ा है। इस प्रकार चुपचाप पड़े हुए दस-बीस वर्ष भी व्यतीत हो जाएं, तब भी वह अपने आप बोल नहीं सकता, उसे बुलाने के लिए उस पर डंडे की चोट लगानी ही पड़ेगी। डंडे की चोट पड़ते ही वह बजने लगता है। मानव-जीवन के सम्बन्ध में भी कभी यही सत्य लागू होता है। कुछ जीवन स्वतः ही क्रियाशील रहते हैं, उन्हें किसी की प्रेरणा की आवश्यकता नहीं रहती, अपनी अन्दर की शक्ति से ही वे अपना विकास करते हैं। परन्तु कुछ जीवन हैं, जो दूसरे की प्रेरणा और सहायता पर ही अपना विकास कर पाते हैं। किसी दूसरे के डंडे की चोट खाए बिना वे अपने जीवन-पथ पर आगे नहीं बढ़ पाते । जो व्यक्ति दूसरे की प्रेरणा और उपदेश के बिना अपने जीवन की यात्रा में अग्रसर नहीं हो पाते हैं, उन्हीं लोगों के लिए गुरु के आदेश और उपदेश की आवश्यकता पड़ती है । ये वे लोग हैं, जो कूप के समान हैं, जिन्हें खोदना पड़ता है, जिनके लिए मार्ग बनाना पड़ता है । परन्तु दूसरे वे लोग हैं, जो झरने के समान होते हैं। उन्हें प्रेरणा की आवश्यकता नहीं रहती, उन्हें बाहर निकालने और उनके लिए मार्ग बनाने की भी आवश्यकता नहीं रहती। वे स्वयं ही बाहर निकलते हैं और स्वयं ही अपना मार्ग बना लेते हैं। जब अन्दर से त्याग, वैराग्य और प्रेम का उद्दाम झरना बहने लगता है, तब उसका कुछ और ही रूप होता है। जैन-साधना झरने के समान एक अन्तरंग का प्रवाह है। साधक के अन्तर् हृदय से जब कभी प्रेम का स्रोत बाहर फूट निकलता है, तब वह समाज और राष्ट्र के जीवन को आप्लावित कर देता है। इस प्रकार के साधकों के लिए कदम-कदम पर न शास्त्र की प्रेरणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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