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________________ १७२ | अध्यात्म प्रवचन बन्धन दोनों जगह है, लोहे में भी और सोने में भी । अध्यात्म-पक्ष में अध्यात्म-साधक यही सोचता और समझता है, कि जैसे पाप बन्धन है, वैसे पुण्य भी बन्धन है । पाप और पुण्य में अध्यात्म-दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है । यदि कुछ अन्तर भी है, तो केवल इतना ही कि एक प्रतिकूल वेदन है और दूसरा अनुकूल वेदन है। एक दुःखरूप है तो दूसरा क्षणिक सुखरूप है । पुण्य की यह अनुकूलता और सुखरूपता भी केवल व्यावहारिक है । वस्तुतः तो पुण्य भी निज स्वरूप से प्रतिकूल है, अतएव दुःखरूप ही है। यही कारण है कि-मोक्ष का शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए जिस प्रकार पाप को छोड़ा जाता है, उसी प्रकार 'पुण्य को भी छोड़ा जाना चाहिए । क्षणिक सुख पाकर उसका अहंकार करना कोरी मूढ़ता के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। ज्ञानी की दृष्टि में एवं विवेकशील आत्मा की दष्टि में बन्धन, बन्धन है, फिर भले ही वह दुःखरूप हो अथवा सुखरूप हो। यह नहीं हो सकता, कि पाप दुःख रूप होने से छोड़ दिया जाए और पुण्य सुख रूप होने से उसे सदैव अपने से चिपटा रखा जाए। ___मैं आपसे धर्म की बात कह रहा था। जीवन के विकास के लिए धर्म-साधना आवश्यक है, इसमें किसी प्रकार का विवाद हो ही नहीं सकता । धर्म की व्याख्या और धर्म की परिभाषा में विवाद हो सकता है, किन्तु धर्म की उपयोगिता में किसी प्रकार का विचार-भेद नहीं हो सकता । जिस प्रकार बीज के लिए भूमि ही आवश्यक नहीं है, जल, पवन और प्रकाश भी आवश्यक होता है, क्योंकि यदि बीज को धरती में डालने के बाद उसे समय पर उचित मात्रा में जल न मिले, शुद्ध पवन न मिले और सूर्य का प्राणप्रद प्रकाश न मिले, तो बीज को उर्वरा भूमि मिल जाने पर भी उसमें से अंकूर नहीं फट सकता। यही सिद्धान्त धर्म के विषय में भी समझिए । धर्म का मूलाधार है'आत्मा' । धर्म सदा आत्मा में ही रहता है । आत्मा के बिना धर्म का अन्य कोई आधार नहीं बन सकता, किन्तु आत्मगत धर्म को, जो कि प्रसुप्त पड़ा हुआ है, जागृत करने के लिए महापुरुष की वाणी, गुरु का उपदेश और शास्त्र का स्वाध्याय भी आवश्यक माना गया है। यद्यपि इन तीनों में धर्म को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है, धर्म कभी उत्पन्न होता भी नहीं है, वह तो एक शाश्वत तत्व है, सदा से रहा है और सदा ही रहेगा, फिर भी उसे पल्लवित और विकसित करने के लिए देव, गुरु और शास्त्र के अवलम्बन की आवश्यकता रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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