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________________ सम्यक दर्शन की महिमा | १८३ किसी भी भौतिक पदार्थ के लाभ से नहीं की जा सकती । एक ओर भौतिक पदार्थ का लाभ हो और दूसरी ओर सम्यक् दर्शन का लाभ हो, तो इन दोनों में सम्यक् दर्शन के लाभ का ही पलड़ा भारी रहता है । कल्पना कीजिए, किसी व्यक्ति को तीन लोक का राज्य भी मिल जाए, पर क्या वह राज्य स्थायी है ? राज्य और उसका वैभव कभी स्थायी नहीं रह सकते, यह सब परिवर्तनशील तत्त्व है । संसार की माया और संसार की तृष्णा का जब तक अन्त नहीं होगा, तब तक आध्यात्मिक राज्य का आनन्द नहीं होगा । सम्यक दर्शन एक ऐसा आध्यात्मिक गुण है, जिसके पूर्ण विकसित हो जाने पर, आध्यात्मिक भाव अनन्तकाल के लिए शाश्वत हो जाता है । सम्यक् दर्शन के होने पर ही अन्य सब गुण अधोमुख से ऊर्ध्वमुख हो जाते हैं । 1 सम्यक् दर्शन अध्यात्न-साधना का मूल आधार एवं मुख्य केन्द्र माना जाता है । सम्यक् दर्शन कहीं बाहर से आने वाला तत्त्व नहीं है, वह तो अनन्त काल से आत्मा में विद्यमान ही है । उस पर जो विकृति आ चुकी है, उसे दूर हटाने की बात ही मुख्य है । आत्मा में अन्य अनन्त गुण हैं, उनमें एक गुण सम्यक् दर्शन भी है, किन्तु सम्यक् दर्शन का इतना अधिक महत्व एवं इतना अधिक गौरव, इसलिए है, कि सम्यक् दर्शन के सद्भाव में ही ज्ञान और चारित्र पनप सकते हैं । सम्यक् दर्शन के सद्भाव में ही यम और नियम सफल हो सकते हैं । सम्यक् दर्शन के सद्भाव में ही तप और स्वाध्याय सार्थक हो सकते हैं । सम्यक् दर्शन समस्त सद्गुणों का आधार है । सम्यक् दर्शन अध्यात्म - जीवन की एक ऐसी कला है, जिसके प्राप्त हो जाने पर जीवन का दुःख भी सुख में परिवर्तित हो जाता है । सम्यक् दर्शन की भूमि में कदाचित दुःख का बीज भी गिर जाए, तो भी वह सम्यक् दर्शन की पवित्र भूमि में अंकुरित नहीं हो पाता है । यदि कभी अंकुरित हो भी जाए, तो वह मिथ्यादृष्टि के समान उद्वेगकारी एवं अनर्थकारी नहीं होता । सम्यग्दर्शन की पावन भूमि में पुण्यानुबन्धी पुण्यरूप अथवा आत्मरमणतारूप सुख का बीज तो खूब ही अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होता है । इसका अर्थ यही है कि सम्यक् दर्शन ही सुख-शांति और आनन्द की मूल जन्मभूमि है । साधक जीवन में यदि प्रज्ञा, मैत्री, समता, करुणा तथा क्षमा आदि की साधना सम्यक्त्व सहित की जाती है, तो उससे अवश्य हो सिद्धिलाभ होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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