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________________ १८४ | अध्यात्म-प्रवचन __ सम्यक् दर्शन एवं सम्यक्त्व वास्तव में एक अद्भुत शक्ति है, क्योंकि इस सम्यक् दर्शन के प्रभाव से ही, आत्मा को विमुक्ति और सिद्धि मिलती है । अधिक क्या कहा जाए, अनन्त अतीत में जितनी भी आत्माएँ सिद्ध हुई हैं और अनन्त भविष्य में जितनी भी आत्माएँ सिद्ध होंगी, उन सबका सम्यक् दर्शन ही आधार है। इसीलिए मैं बार-बार आपके सामने सम्यक दर्शन की महिमा और गरिमा का वर्णन कर रहा है। यह सम्यक् दर्शन अनुपम सुख का भण्डार है, सर्व कल्याण का बीज है, और संसार-सागर से पार उतरने के लिए एक महान जहाज है । जिसने सम्यक् दर्शन को प्राप्त कर लिया, उसके समक्ष तीन लोक के राज्य का सुख भी कुछ मूल्य नहीं रखता। इस संसार का अन्त करने वाला यह सम्यक् दर्शन जिस किसी भी आत्मा में प्रकट हो जाता है, वह आत्मा कृतकृत्य हो जाता है । सम्यक् दर्शन को ज्योति जब साधक के जीवन-पथ को आलोकित कर देती है, तब इस अनन्त संसार-सागर में साधक को किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता । वह यह समझता है, कि सम्यक् दर्शन का चिन्तामणि रत्न जब मेरे पास में है, मेरे पास में क्या, मुझ में ही है, तब मुझे किस बात की चिन्ता है और किस बात का भय है ? जिसके पास सम्यक दर्शन है उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता। __ मैं आपसे सम्यक दर्शन की बात कर रहा था । सम्यक दर्शन क्या वस्तु है ? जैन दर्शन के अनुसार और अध्यात्म-शास्त्र के अनुसार आत्म-दर्शन ही वस्तुतः सम्यक् दर्शन है । बिना आत्म-दर्शन के सम्यक् दर्शन हो ही नहीं सकता । सम्यक् दर्शन के लिए यह आवश्यक है, कि आत्मा की प्रतीति हो और इस बात की प्रतीति हो कि मैं हैं। और वह मैं, देह नहीं, देह से भिन्न आत्मा हैं। यह माया, यह मोह, यह ममता, यह राग और यह द्वष-ये सब अपनी ही अज्ञानता एवं भूल के कारण अपनी ही आत्मा की विभाव परिणति के विविध रूप हैं । परन्तु इस तथ्य को कभी मत भूलिए, कि यह विविध विकल्प एवं विकार स्वप्न के संसार के समान हैं। जिस प्रकार स्वप्न तभी तक रहता है, जब तक व्यक्ति निद्रा के अधीन रहता है, किन्तु ज्यों ही व्यक्ति जागता है, न जाने स्वप्न में उत्पन्न होने वाले वे दृश्य कहाँ भाग जाते हैं। इसी प्रकार आत्मा की विभाव परिणति के यह विविध रूप भी आत्मा की अज्ञानरूप निद्रा के दूर होते ही क्षण भर में सहसा विलुप्त हो जाते हैं । निद्रा-अधीन व्यक्ति अपनी स्वप्नावस्था में कभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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