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अमृत की साधना : सम्यक् दर्शन | २७१ सोच भी तो नहीं सकते। यह एक रूपक है, एक कथानक है, इसके मर्म को समझने का प्रयत्न कीजिए। वह प्रत्येक मनुष्य उस दरिद्र ब्राह्मण के समान है, जो अपने इस देह में रहने वाले आत्मारूपी इन्द्र से, जो अक्षय आनन्द एवं अक्षय शक्ति का स्वतन्त्र स्वामी है, केवल इन्द्रिय जन्य भोगों की आकांक्षा तथा माँग करता है। इस आत्मा में इतना ऐश्वर्य, इतनी विभूति और इतना प्रभाव है, कि इसके समक्ष एक इन्द्र तो क्या, कोटि-कोटि इन्द्र भी फीके पड़ जाते हैं । इस आत्मा को भुला कर, यदि मनुष्य इन्द्रियों के तुच्छ भोगों से ऊपर नहीं उठ सकता, तो यह उसके लिए एक बड़ी लज्जा की बात है। जो आत्मा इतना महान है और इतना विराट है, कि इन्द्र को भी स्वर्ग से नीचे उतार सकता है, क्या वह अपनी साधारण सी जीवन-समस्याओं का हल नहीं कर सकता? इस मनुष्य की आत्मा में इतनी विराट शक्ति है, कि उसके उपयोग एवं प्रयोग से रोटी के दो टुकड़े तो क्या, मुक्ति को भी प्राप्त किया जा सकता है। यदि हम उस अध्यात्म-शक्ति का सही-सही उपयोग करना सीख ले, तो फिर जीवन के सम्बन्ध में स्पष्ट और स्वस्थ दृष्टिकाण रखकर, हम अपने इस वर्तमान जीवन में ही दिव्य प्रकाश प्राप्त कर सकते हैं। उस परम तत्व को जानकर हम सब कुछ को जान सकते हैं । इस शरीर को केवल शरीर ही मत समझिए, बल्कि इसे आत्मरूप भगवान का समवसरण ही समझिए, जिसमें शक्तिरूपेण जिनमुद्रा से आत्मदेव विराजमान है। जब तक अपने ही अन्दर उस आत्मदेव एवं जिन देव को पाने के लिए, प्रयास नहीं किया जाता, तब तक समस्या का समाधान नहीं हो सकता। आत्मा ही जिन है और जिन ही आत्मा है, उसे समझने का एक स्वस्थ दष्टिकोण अवश्य चाहिए। मैं आपसे कह चुका है, कि जीवन विष नहीं है, अमृत है, पर हम उसे अज्ञानवश विष समझकर पथ-भ्रान्त हो रहे हैं । अपनी अज्ञानता एवं अपनी अविद्या के कारण ही, हमने अमृत को भी विष समझ कर भयंकर भूल की है । भारत के अध्यात्मवादी दर्शन का दृष्टिकोण निन्ति है। उसका दृष्टिकोण स्पष्ट है। वह कहता है, कि आत्मा के प्रकाश में यह जीवन विष नहीं, अमृत ही है । जिसने आत्मा को जान लिया, उसके लिए इस संसार में कहीं पर भी विष नहीं है । उसके लिए सर्वत्र और सर्वदा अमृत का सागर ही लहराता रहता है । उसके जीवन के कण-कण में अमृत व्याप्त है।
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