SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंथवादी सम्यक् दर्शन | २५१ सम्यक् दर्शन की प्राप्ति है। मैं आत्मा हूँ, मैं शुद्ध, बुद्ध एवं निरंजन हूँ, इस प्रकार का विश्वास विशुद्ध दृष्टि के बिना नहीं हो सकता। किन्तु याद रखना चाहिए कि आत्मा के सम्बन्ध में इतना ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। आत्मा पर विश्वास करना भर ही सम्यक् दर्शन नहीं है । वस्तुतः दीपक की अचंचल स्थिर ज्योति के समान 'स्व' की निर्विकल्प प्रतीति सम्यक् दर्शन है। मैं आत्मा हूँ, यह विश्वास तो बहुत बार हो जाता है, परन्तु निर्विकल्प शुद्ध स्वरूप की अनुभूति कुछ विलक्षण ही है । वह मन वाणी से परे की स्थिति है। यदि मैं आत्मा हूँ, यही बुद्धि सम्यक् दर्शन है, तो सिद्धों की भी क्या केवल वही दृष्टि रहती है, कि मैं आत्मा हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं निर्विकल्प हूँ। नहीं, ऐसी बात नहीं है । वहां आत्मा का विश्वास नहीं, बल्कि उसकी निर्विकल्प प्रतीति होती है । लोग प्रायः श्रद्धा के बहुत साधारण हल्के अर्थ को लेकर चल पड़ते हैं और उसे सम्यक् दर्शन मान लेते हैं। सम्यक् दर्शन का अर्थ आत्मा की निर्विकल्प प्रतीति है। निश्चय दृष्टि से विचार किया जाए तो सम्यक् दर्शन की भूमिका में विकल्प के द्वारा केवल इतनी अनुभूति नहीं होती कि मैं आत्मा हूँ। यह विचार और विश्वास तो अन्दर के उस निर्विकल्प तत्व दर्शन के लिए, तथा उस आत्म स्वरूप की निर्विकल्प प्रतीति के लिए प्राथमिक भूमिकाओं में ही किया जाता है। चतुर्थ गुण स्थान के सम्यक् दर्शन में और अग्रिम गुण स्थानों एवं केवल ज्ञानी सिद्धों के सम्यक् दर्शन में आत्मा की निर्विकल्प प्रतीति एक सी होती है, और यह निर्विकल्प स्वप्रतीति सतत एक अखण्ड एवं अविच्छिन्न रूप से प्रदीप्त रहती है। जब ज्ञानोपयोग आत्मा में रहता है, तब भी, और जब बाहर के संसारी कामों में रहता है तब भी । यह नहीं कि बाहर के संसारी भोगों में जब चित्त वृत्ति लगी हो, तब सम्यक् दर्शन नहीं रहता हो । और जब में आत्मा हूँ, इत्यादि विकल्पानुभूति हो तब सम्यक् दर्शन पुनः आ जाता है। संसार के विषय भोगों में और भयंकर युद्ध में लगे रहने पर भी सम्यक दृष्टि आत्मा की निर्विकल्प स्वरूपानुभूति वस्तुतः बाहर में न रह कर अन्दर में ही रहती है। उदाहरण के लिए शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ इन तीनों तीर्थंकरों के जीवन को लीजिए, जो अपने जीवन में चक्रवर्ती भी रहे और तीर्थंकर भी रहे । यद्यपि तीनों तीर्थंकर होने वाले जीव थे, फिर भी तीनों ही प्रारम्भ में संसार के भोगों एवं युद्धों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy