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धर्म-साधना का आधार | १८१
किया है, उसका परित्याग कर देने पर शान्ति मिल जाती है, किन्तु मुझे तो अभी तक शान्ति नहीं मिली। इसका क्या कारण है ?” सन्त ने उसकी बातों को ध्यान से सुना और कहा - "जिस पात्र में वर्षों तक तेल रहा हो, उसमें से तेल की गन्ध अच्छी तरह मांजने पर भी आसानी से नहीं जाती । यह माना कि आपने अपनी सम्पत्ति का त्याग कर दिया किन्तु मन में से सम्पत्ति का राग जैसा छूटना चाहिए था, वैसा छूटा नहीं है । सम्पत्ति पुत्रों को सौंप दी है । किन्तु अब भी तुम्हारे मन में यह विकल्प है कि कहीं नादान लड़के सम्पत्ति नष्ट न कर दें । सम्पत्ति तो छोड़ी, किन्तु उसका राग कहाँ छोड़ा है ? और इस स्थिति में तुम्हें शान्ति लाभ हो, तो कैसे हो ?"
मैं आपसे कह रहा था, कि अनन्तकाल से जड़ पदार्थों के प्रति राग रूप अधर्म आत्मा में रहा है, परन्तु स्वरूपदर्शन रूप सम्यक् दर्शन धर्म के होते ही आत्मा का उत्थान होने लगेगा, चैतन्य का विकास होने लगेगा । धैर्य रखो और प्रतीक्षा करो, कि आपकी आत्मा में सम्यक् दर्शन का दिव्य प्रकाश जगमगाने लगे । सम्यग् दर्शन के दिव्य आलोक में ही आप अपने धर्म को और अपने कर्तव्य को भली भाँति समझ सकेंगे । समझ क्या सकेंगे ? सम्यक् दर्शन रूप धर्म के प्राप्त होते ही यह आत्मा धन्य-धन्य हो जाता है ।
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