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________________ २४८ | अध्यात्म प्रवचन दर्शन तो अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा में विश्वास करना ही है। जब तक आत्मा में विश्वास नहीं होगा, तब तक पंथ पर विश्वास करने से भी काम नहीं चलेगा। यह सब आत्मा का धर्म नहीं है, और जो आत्मा का धर्म नहीं है, वह सम्यक् दर्शन कैसे हो सकता है ? अध्यात्म ग्रन्थों में मुख्य रूप से सम्यक दर्शन के दो भेद किए गए हैं-व्यवहार सम्यक् दर्शन और निश्चय सम्यक् दर्शन । यद्यपि तत्वतः सम्यक् दर्शन एक है, अखण्ड है और अविभाज्य है, फिर भी यहाँ जो दो भेद किये गए हैं, वे नय-दृष्टि की अपेक्षा से किए गए हैं। स्वरूप की दृष्टि से सम्यक् दर्शन में किसी प्रकार का भेद नहीं हो सकता। दर्शन आत्मा का मूल गुण है । सम्यक दर्शन और मिथ्या दर्शन उसकी पर्याय हैं। एक शुद्ध पर्याय है और दूसरी अशुद्ध पर्याय है। जब तक जीव को स्व-पर का विवेक नहीं होता है तब तक आत्मा का वह दर्शन गुण मिथ्या दर्शन कहा जाता है। स्व-पर का विवेक होते ही, वह मिथ्या दर्शन से सम्यक् दर्शन बन जाता है। सम्यक् दर्शन जीव की स्वाभाविक अवस्था है, और मिथ्या दर्शन जीव की नैमित्तिक अवस्था है। मिथ्या दर्शन में दर्शन मोहनीय कर्म का उदय रहता है और सम्यक् दर्शन में दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय और क्षयोपशम भाव रहता है। इस प्रकार दर्शन गुण की अशुद्धि और शुद्धि दर्शन मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम पर निर्भर रहती है। ___ मैं आपसे यह कह रहा था, कि अपने जीवन को पवित्र बनाने के लिए सम्यक् दर्शन को समझने की नितान्त आवश्यकता है। किन्तु हमें यह समझना होगा, कि सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में निमित्त को मानते हुए भी मूल कारण उपादान की ओर ही विशेष लक्ष्य रहना चाहिए। जीवन-विकास के लिए अथवा आध्यात्मिक-साधना के विकास के लिए, निमित्त की आवश्यकता को सभी मानते हैं, भले ही वह निमित्त अंतरंग का हो, अथवा बाह्य का हो। मिथ्यादर्शन और मिथ्या ज्ञान आज का ही नहीं, अनन्तकाल से चला आया है। कभीकभी बाहर में शुद्ध निमित्त भी मिले, किन्तु उपादान शुद्ध न हो सका, इसीलिये शुद्ध निमित्त की उपलब्धि भी सार्थक न हो सकी। सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में निमित्त की आवश्यकता है। उपादान और निमित्त दोनों मिलकर ही कार्यकारी होते हैं । और यह निमित्त बाह्य For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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