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________________ पंथवादी सम्यक् दर्शन | २४७ का ही धर्म है । आत्मा से बाहर कहीं पर भी सम्यक् दर्शन की सत्ता एवं स्थिति को स्वीकार करना, प्रतिक्रियावादी और पंथवादी दृष्टिकोण है। ___मैं आपसे यह कह रहा था, कि सम्यक दर्शन के स्वरूप को पंथवादी व्यक्ति सम्यक् प्रकार से नहीं समझ सकता, क्योंकि उसकी दृष्टि बाहर में रहती है, अन्दर की ओर नहीं। किसी भी बाह्य निमित्त को सम्यक् दर्शन कहना, न तर्क संगत है और न न्यायसंगत । मैं आपसे यह कह रहा था, कि जब आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी बाह्य वस्तु में सम्यक् दर्शन रहता ही नहीं है, तब क्यों उसे किसी पंथविशेष के उपकरणों में परिकल्पित किया जाता है । जब मनुष्य आत्मधर्म को भूलकर, रूढ़िधर्म को ही अपना परम कर्तव्य समझने की भूल करता है, तब यथार्थ रूप में न वह आत्मा को समझ पाता है और न आत्मा में रहने वाले धर्मों को ही पकड़ पाता है। उसके जीवन का सबसे प्रधान ध्येय पंथ का ही बन जाता है। पंथ का आग्रह और पंथरक्षा का प्रयत्न, यह संसार का बहुत बड़ा विष है, इससे मुक्त हुए बिना आत्म-धर्म की साधना नहीं की जा सकती। एक हिन्दू के मन में अपनी चोटी के प्रति असीम आग्रह रहता है, जबकि एक मुसलमान के मन में अपनी दाढ़ी का आग्रह रहता है। किन्तु चोटी और दाढ़ी में, जनेऊ और खतना में, अथवा केश, कंघी और कृपाण आदि में विश्वास रखना निश्चय ही आत्म धर्म नहीं कहा जा सकता। यह सब पंथ की दृष्टि है। पंथ में रहते हुए मनुष्य उसकी चारदीवारी के बाहर के किसी भी सत्य को स्वीकार करने के लिए तैय्यार नहीं होता । जैनों में भी श्वेताम्बर और दिगम्बर तथा स्थानकवासी और तेरापंथ आदि सम्प्रदाय एवं उपसंप्रदाय, पंथ के बाह्य उपकरणों को लेकर खोंचातानी एवं संघर्ष करते रहे हैं। किसी ने मयूरपिच्छी में धर्म माना, तो किसी ने रजोहण रखने में धर्म माना, किसी ने दण्ड रखने में धर्म माना, तो किसी ने मुख-वस्त्रिका में धर्म माना । पंथ को नापने वाले यह गज, इतने ओछे एवं अधरे हैं कि इन गजों से अमर तत्व आत्मा को नहीं नापा जा सकता । दिगम्बर कहते हैं-नग्नता के विश्वास में ही सम्यक् दर्शन है । श्वेताम्बर कहता है-मूर्ति पूजा की श्रद्धा में ही सम्यक् दर्शन है। स्थानकवासी कहता है-मुखवस्त्रिका लगाने की रुचि में ही सम्यक् दर्शन है, किन्तु मेरे विचार में इनमें से किसी भी वस्तु में सम्यक् दर्शन नहीं है । मेरे विचार में सच्चा सम्यक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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