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पंथवादी सम्यक् दर्शन | २४६ और अन्तरंग दोनों प्रकार के होते हैं । अतः सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में यदि कोई बाह्य निमित्त हो, तो बहुत सुन्दर है, किन्तु दर्शन मोह का उपशमादि अंतरंग निमित्त तो आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । आत्मा के अन्दर ही एक गुण दूसरे गुण में निमित्त बन जाता है । मिथ्याज्ञान को सम्यक् ज्ञान में बदलने के लिए बाहर का हेतु काम नहीं देता, अंतरंग हेतु सम्यक् दर्शन काम आता है । बाहर के हजारों हजार निमित्त मिलें तब भी अज्ञान ज्ञान में परिणत नहीं हो सकता । परन्तु सम्यक् दर्शन के सद्भाव में तुरन्त ही मिथ्याज्ञान सम्यक् ज्ञान में परिणत हो जाता है। इसी आधार पर कहा गया है, कि दर्शनपूर्वक ही ज्ञान, ज्ञान बनता है अर्थात् सम्यक् दर्शन से ही सम्यक् ज्ञान का आविर्भाव होता है । यदि केवल बाह्य निमित्त को ही एकमात्र कारण मान लिया जाए, तब तो बाहर में सबको समान निमित्त मिलने पर समान ही फल प्राप्ति होनी चाहिए, परन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि उपादान सबका भिन्न-भिन्न है । इसलिये बाह्य निमित्त समान होने पर भी उपादान सबका भिन्न होने के कारण फल प्राप्ति में अन्तर रहता है। एक बीमार को एक डाक्टर ने दवा दी और वह अच्छा हो गया, किन्तु वही दवा उसी रोग में दूसरे व्यक्ति को दी तो वह स्वस्थ नहीं हो सका । बाह्य निमित्त समान होने पर भी, उपादान भिन्नभिन्न होने से यह फल-भेद दृष्टिगोचर होता है । दूसरी बात यह भी है, कि मनुष्य जितना बाहर में देखता है, उतना अपने अन्तर में नहीं देख पाता । जब तक वह अन्तर की ओर नहीं देखता, तब तक वह बाह्य निमित्त से ही चिपटा रहता है ।
अध्यात्म-शास्त्र में दो प्रकार की लब्धि का वर्णन है—देशनालब्धि और कालब्धि | देशनालब्धि का अर्थ है - बाह्य निमित्त । काललब्धि का अर्थ है - अन्तरंग निमित्त । कल्पना कीजिए, दो साधक समान भाव से एक जैसी साधना करते हैं । साधना करते हुए एक की मुक्ति इसी जन्म में हो जाती है और दूसरे की इस जन्म में नहीं हो पाती । इसका क्या कारण है ? क्या आपने कभी विचार किया है ? आप देखते हैं, कि दोनों साधकों के जीवन में देशनालब्धि तो समान है, परन्तु काललब्धि दोनों की भिन्न-भिन्न है । एक की कालब्धि का परिपाक हो चुका था, इसलिये उसकी मुक्ति हो गई, दूसरे की कालfor का परिपाक अभी तक नहीं हुआ, इसलिये उसे
मुक्ति नहीं मिल
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