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________________ ५४ | अध्यात्म प्रवचन और अभिरुचि जमती नहीं है, स्वस्वरूप में अन्तर्मन स्थिर नहीं होता है। ___मैं आपसे कह रहा था, कि मोक्ष क्या है और उसकी प्राप्ति का साधन क्या है ? इस विषय पर विचार करना हो सच्ची आध्यात्मिकता है। क्या आपने कभी यह समझने का प्रयत्न किया है, कि आपकी आत्मा में अनन्त ज्ञान होते हए भी आप अल्पज्ञ क्यों हैं ? आपकी आत्मा में अनन्त शक्ति होते हुए भी आप दुर्वल क्यों हैं ? आप मुल में निर्मल एवं निर्विकार होते हए भी मलिन एवं विकारी क्यों हैं ? इन समस्त प्रश्नों का एक ही समाधान है, कि आत्मा अनंत काल से अज्ञान के बन्धन से बद्ध है। उसमें राग और द्वेष आदि कषाय के विकल्पों का तूफान उठता रहता है। आत्मा अपने ही विकार एवं विकल्पों की उलझनों में अनन्त काल से उलझा रहा है। कर्म का यह जाल, जिसमें आत्मा बद्ध है, कहीं बाहर से नहीं आया, आत्मा ने स्वयं इसको उत्पन्न किया है और आत्मा स्वयं ही इसको तोड़ भी सकता है । आत्मा अपने विकारों के जाल में उसी प्रकार फंसा हुआ है, जिस प्रकार मकड़ी स्वयं अपने बुने जाल में फँस जाती है। मछियारा अपना जाल किसी सरोवर में या नदी में डालकर जैसे मछलियों को फंसा लेता है, वैसे कोई भी बाह्य शक्ति हमारी आत्मा को बन्धन में नहीं डाल सकती, जाल में नहीं फंसा सकती । मैं कहता हैं कि आपकी बिना इच्छा के दुनिया की कोई भी ताकत आपको बन्धन में बाँध नहीं सकती । जैन-दर्शन एक बहुत बड़ी बात कहता है, कि आत्मा को बन्धन में डालने वाला आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा ईश्वर, परमात्मा तथा देवी और देवता नहीं हो सकता। आत्मा के स्वयं के राग, द्वष और मोह आदि विकल्प ही बन्धन में डालते हैं, जो स्वयं उसके अन्दर से ही विभाव शक्ति के द्वारा उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक अध्यात्म-साधक को यह चिन्तन और मनन करना चाहिए, कि जिस जाल में तुम फसे हो, वह तुम्हारे स्वयं के ही संकल्प, विकल्प और अध्यवसाय से बना है। आत्मा अज्ञान से आवृत्त है। यह अज्ञान बाहर से नहीं लाया गया, आत्मा के अपने वैभाविक परिणामों का ही यह प्रतिफल है। कुछ तत्व-चिन्तक यह विचार करते हैं, कि संसार के बाह्य पदार्थ हमें बन्धन में डालते हैं। परन्तु यथार्थ में यह बात सत्य नहीं है। जब तक मनुष्य के मन में राग और द्वेष की वृत्ति उत्पन्न न हो, तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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