SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विवेक-दृष्टि | ५५ तक कोई भी बाह्य पदार्थ बाँध नहीं सकता । यदि राग और द्वेष की वृत्ति के विना भी आत्मा बन्धन-बद्ध होने लगे, तब तो बड़ी विचित्र स्थिति होगी । केवल ज्ञानी वीतराग आत्मा, जिसकी केवल ज्ञानधारा सतत प्रवाहित रहती है, जिसके ज्ञान-रूप उपयोग में संसार के अनन्त-अनन्त पदार्थ प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होते रहते हैं. उसे भी बन्ध होने लगेगा । किन्तु ऐसा कभी होता नहीं है, हो सकता भी नहीं है। मेरे कहने का तात्पर्य इतना ही है, कि किसी पदार्थ को ज्ञान-उपयोग के द्वारा जानने मात्र से ही बन्धन नहीं होता है । पदार्थों का परिज्ञान करना, यह तो आत्मा का अपना सहज स्वभाव है। यदि आत्मा अपनी ज्ञान-शक्ति से अपने से भिन्न संसार के अन्य पदार्थों को भी जानता है और देखता है, तो इसमें बुराई की कोई बात नहीं है. किसी पदार्थ को जानना मात्र बन्धन नहीं है। बन्धन तभी होता है, जब कि जानने के साथ मन में राग और द्वेष की वृत्ति उत्पन्न होती है। कल्पना कीजिए-एक व्यक्ति आपके समक्ष खडा होकर आपके प्रति प्रिय अथवा अप्रिय शब्दों का प्रयोग करता है। इस स्थिति में प्रिय शब्द को सुनकर यदि आपके मन में राग उत्पन्न हो गया, तो वह बन्धन है । यदि अप्रिय शब्द को सुनकर आपके मन में द्वष उत्पन्न हो गया, तो यह भो बन्धन है । परन्तु निन्दा और प्रशंसा सुनकर भी यदि आपका मन सम रहता है, मध्यस्थ रहता है, तो उस समय आपको न राग का बन्धन है और न द्वष का बन्धन है। व्यवहार दृष्टि से शब्द प्रिय और अप्रिय हो सकते हैं। भाषा साधारण और असाधारण हो सकती हैं । निश्चय दृष्टि से तो शब्द और भाषा जड़ हैं, उनका अपना शुभत्व एवं अशुभत्व कुछ नहीं है । भाषा के पुद्गलों की दृष्टि से संसार के एक सामान्य व्यक्ति की भाषा और वीतराग प्रभु की वाणी दोनों ही एक रूप हैं, परन्तु वीतराग वाणी सुनकर यदि हमारे उपादान की तैयारी है तो कषाय का शमन हो जाता है, हमारे जीवन में एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक परिवर्तन आ जाता है । और यदि उपादान की तैयारी नहीं है, शुद्ध उपयोग का परिणमन नहीं है, तो वीतराग वाणी सुनकर कर्मबन्ध भी हो सकता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन के माध्यम से ही होते हैं । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, न मति ज्ञान हो सकता है और न श्रुतज्ञान हो सकता है। मन और इन्द्रियाँ हमारे ज्ञान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy