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________________ ५६ / अध्यात्म प्रवचन माध्यम हैं । इन्द्रिय और मन के होते हुए भी जब तक उपयोग नहीं होता है, तब तक संसारी आत्मा को मति या श्रुत किसी प्रकार का ज्ञान नहीं हो सकता । श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ अपने शब्द आदि विषयों को ग्रहण करती हैं और मन उन पर चिन्तन एवं मनन करता है, परन्तु यह सब उपयोग के द्वारा ही होता है। यदि उपयोग नहीं है, तो किसी प्रकार का ज्ञान नहीं हो सकता। कल्पना कीजिए आपके सामने मिष्टान्न से भरा थाल रक्खा है। आपने उसमें से अपने मन-पसन्द की एक मिठाई उठाई और मुख में रख ली, और खाने भी लगे । किन्तु आपकी उपयोग-धारा, विचारधारा उस समय कहीं अन्यत्र है। इस स्थिति में आपको जिह्वा के साथ पदार्थ का स्पर्श होने पर भी उसमें उपयोग न लगने के कारण रस का परिज्ञान आपको नहीं हो पाता । ज्ञान तभी होता है, जबकि विभिन्न इन्द्रियाँ अपने विभिन्न विषयों को ग्रहण करें और साथ में उपयोग भी उनमें रहे। इस वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है, कि शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये पाँच विषय हैं । इनका ग्रहण इन्द्रियों के द्वारा होते हुए भी इनका परिबोध तब तक नहीं हो पाता, जब तक ज्ञानोपयोग का विषयोन्मुख परिणमन न हो। ___ मैं आपसे कह रहा था कि शब्दादि विषयों के ज्ञान से बधन नहीं होता है। बंधन होता है, उपयोग के कर्म-चेतना रूप अशुद्ध परिणमन से होने वाले राग और द्वेष आदि विकल्पों के कारण । ज्ञान का कार्य प्रकाश करना है, न कि बंधन । ज्ञान एक ऐसी शक्ति है, ज्ञान आत्मा का एक ऐसा गुण है, जिसका स्वभाव है प्रकाश । ज्ञान अन्दर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करता है। ज्ञान वह है जो स्वयं अपना बोध भी करता है और अपने से भिन्न पर पदार्थ का बोध भी करता है। जैन-दर्शन के अनुसार ज्ञानोपयोग स्व-पर प्रकाशक है। ज्ञानोपयोग आत्मा का एक बोधरूप व्यापार है। आत्मा का बोध-रूप व्यापार होने से वह आत्मस्वरूप ही है, वह आत्मा से भिन्न नहीं है । ज्ञान जब पर पदार्थ को जान सकता है, तब अपने को वह क्यों नहीं जान सकता ? जिस प्रकार घर की देहली पर रखा हुआ दीपक अपना प्रकाश अन्दर और बाहर दोनों ओर फेंकता है, जिससे घर के अन्दर रखी हुई वस्तुओं का बोध भी हो जाता है और घर से बाहर जो वस्तु हैं, उनका परिज्ञान भी हो जाता है। उसी प्रकार आत्म-स्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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