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साधना का लक्ष्य | 88
अधिक फिर बाँध लिया, इस प्रकार बन्ध और भोग की कभी समाप्ति नहीं हो सकती । इसी आधार पर शास्त्रकारों ने सविपाक निर्जरा को मोक्ष का अंग नहीं माना है। इसके विपरीत अविपाक निर्जरा मोक्ष का अंग इस आधार पर बन जाता है, कि उसमें कर्मों को भोगकर समाप्त नहीं किया जाता, बल्कि कर्म के उदयकाल से पूर्व ही आध्यात्मिक तप एवं ध्यान आदि की विशुद्ध क्रियाओं से उसे क्षय कर दिया जाता है। हजारों-लाखों-करोड़ों जन्मों के कर्म दलिकों को अविपाक निर्जरा के द्वारा एक क्षण में ही समाप्त कर दिया जाता है। जिस प्रकार किसी गिरि कन्दरा में रहने वाले अन्धकार को, जो असंख्य वर्षों से उसमें रहता चला आया है, प्रकाश की एक ज्योति क्षण भर में ही नष्ट कर देती है। उसी प्रकार सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र की निर्मल ज्योति से असंख्य जन्मों के पूर्व संचित कर्म भी अविपाक निर्जरा की साधना के द्वारा एक हो क्षण में क्षय किए जा सकते हैं । अध्यात्मशास्त्र में अविपाक निर्जरा की अपार महिमा है और अपार गरिमा है। अविपाक निर्जरा एक वह दिव्य प्रकाश है, जिसके प्रज्वलित हो जाने पर अनादिकाल से आने वाले कर्मों का अन्धकार क्षण भर में ही नष्होट सकता है। ___ अध्यात्म-साधना उस महत्त्वपूर्ण लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए है, जो आत्मा का अपना निज स्वरूप है। और जब मुक्ति आत्मा का निज स्वरूप है, तब उसका प्राप्त क्या करना ? यहाँ प्राप्त करने का अयं इतना ही है-आत्मा का अपना निजस्वरूप, जो कर्मों से आवृत है, उसे अनावृत कर देना ही मोक्ष एवं मुक्ति है।
कुछ विचारक यह कहते हैं, कि आत्मा नित्य बद्ध ही रहता है, उसकी मुक्ति नहीं होगी। इसके विपरीत जैन-दर्शन का कथन है कि मुक्ति क्यों नहीं होगी, वह तो आत्मा का स्वभाव ही है। एक भी क्षण ऐसा नहीं है जिसमें आत्मा अपने पुरातन कर्मों का क्षय न कर रहा हो। आत्मा में जहाँ नवीन कर्म को बाँधने की शक्ति है, वहाँ उसमें कर्म को क्षय करने की शक्ति भी है। प्रतिक्षण कर्म को क्षय करते रहने की शक्ति प्रत्येक आत्मा में विद्यमान है। भले ही वह कर्म क्षय सविपाक निर्जरा से हो रहा हो, भोग-भोग कर ही क्षय किया जा रहा हो अथवा अविपाक निर्जरा से बिना भोगे ही क्षय कर दिया गया हो। दोनों ही स्थिति में कर्मक्षय की प्रक्रिया चालू रहती है। और जब आंशिक रूप से कर्मक्षय की, अर्थात् कर्म मुक्ति
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