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________________ १०० | अध्यात्म-प्रवचन की प्रक्रिया चालू है तो एक दिन पूर्ण रूप से भी कर्म क्षय हो सकता है । यह ठीक है कि सविपाक भोग से पूर्ण क्षय नहीं होता है । बात यह है कि दुःख एवं सुख को जब भोग कर समाप्त किया जाता है, तब दुःख में विलाप करने से और सुख में अहंकार करने से पुनः कर्म का बन्ध हो जाता है । इसीलिए मैं आपसे यह कह रहा था, कि कर्म को भोगकर उसे कभी मूलतः क्षय नहीं किया जा सकता । उसे तो बिना भोगे ही समाप्त किया जा सकता है । कर्मों का क्षय करते समय कर्मों के नवीन बन्ध को रोकने के लिए संवर की साधना का विधान किया गया है । संवर उस निर्बन्ध साधना को कहा जाता है, जिसके होते हुए किसी प्रकार के कर्म-मल के लगने की आशंका नहीं रहती । पुरातन कर्मों को भोगकर समाप्त करना, यह भी अध्यात्म- जीवन की कला अवश्य है, किन्तु अध्यात्म जीवन की सर्वश्रेष्ठ कला यही है, कि कर्मों को बिना भोगे ही, नवीन कर्मों को बिना बाँधे हुए ही, उनको समाप्त कर दिया जाए। भोगकर समाप्त करने में वासना एवंआसक्ति की आशंका बनी रहती है । भोगते समय यदि आत्मा निर्लिप्त रह सके, तो उससे भी बहुत बड़ा लाभ मिलता है । भोगों में निर्लिप्त रहना ही अध्यात्म-साधना का प्रधान लक्ष्य है और यही चरम उद्देश्य है । अविपाक निर्जरा से बद्ध कर्मों को बिना भोगे ही क्षय कर दो, उदय प्राप्त कर्मों को निर्लिप्त भाव सेभोगकर क्षय कर दो, संवर की साधना से भविष्य में कर्म बन्ध न होने दो, बस फिर आत्मा से परमात्मा होने में कोई शंका नहीं है । जब यह कहा जाता है कि प्रत्येक आत्मा में, अपने पुरातन संचित कर्म को तोड़ने की शक्ति है, तब इसका अर्थ यह होता है कि विश्व की प्रत्येक आत्मा में तथा विश्व के प्रत्येक चेतन में ईश्वर एवं परमात्मा बनने की शक्ति है । प्रश्न किया जा सकता है और किया जाता है कि यदि प्रत्येक आत्मा में ईश्वर और परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है, तब वह क्यों नहीं बन जाता ? इसका समाधान यह किया गया है कि - शक्ति तो है, परन्तु अपने प्रबल आध्यात्मिक पुरुषार्थ के द्वारा उसे जागृत नहीं करने पाता । उस शक्ति का जागृत हो जाना हो वस्तुतः मोक्ष का मार्ग है । प्रत्येक चेतना में यह आध्यात्मिक जागरण होना चाहिए कि- मैं आत्मा हूँ और मेरा निज स्वरूप मुक्ति है, बन्धन नहीं । यद्यपि व्यवहार नय से आत्मा कर्मों के बद्ध है, कर्म की दलदल में पड़ा है, तथापि निश्चय नय से यह आत्मा शुद्ध, बुद्ध, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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