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________________ साधना का लक्ष्य | १.१ निरंजन एवं निर्विकार है। किसी भी चेतन आत्मा के अन्तर में जब यह भाव जागृत होता है कि मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निरंजन हूँ, निर्विकार हूँ और ज्योति स्वरूप हूँ तथा मैं जड़ पुद्गल से भिन्न निर्मल एवं असंग चेतन हैं, तब ज्ञाता द्रष्टा आत्मा के इस दिव्य भाव को शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार सम्यक्त्व कहा जाता है । इस दिव्य दृष्टि के विना तथा सम्यक्त्व के इस दिव्य आलोक के विना, किसी भी आत्मा को न अनन्त अतीत में मुक्ति मिली है और न अनन्त अनागत में मुक्ति मिल सकेगी। सम्यक् दर्शन ही मुक्ति एवं मोक्ष का मूल आधार है । इसके विना मोक्ष कैसे हो सकता है ? जब-जब आत्मा यह विचार करता है, कि मैं शरीर हैं, मैं इन्द्रिय हैं, मैं मन हूँ, मैं काला हूँ, मैं गोरा हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं बन्धन से बद्ध हूँ, और मैं कभी बन्धन से विमुक्त नहीं हो सकता, तब यह समझना चाहिए कि वह आत्मा मोक्ष की साधना से अभी बहुत दूर है । यदि तन एवं मन के तथा अहंता एवं ममता के बन्धन नहीं टूटे हैं तो वह एक मिथ्या दृष्टि है। जब तक हमें अपनी अनन्त चित् शक्ति पर विश्वास नहीं है, जब तक चेतना के शाश्वत सद्गुणों पर आस्था निष्ठा और श्रद्धा स्थिर नहीं होती है, तब तक मिथ्या दृष्टि कैसे दूर हो सकती है ? प्रत्येक चेतन में अनन्त शक्ति है, परन्तु वह प्रसुप्त पड़ी है, उसे जागृत करने की आवश्यकता है। जब तक बन्धन को तोड़ने का श्रद्धान और विश्वास प्रबल नहीं हो जाता, तब तक बन्धन कभी टूट नहीं सकेगा । बन्धन तभी टूट सकता है, जब कि उसे बन्धन समझा जाए और उस से विमुक्त होने के लिए चित्त में दृढ़ विश्वास एवं श्रद्धा जागृत हो। मनुष्य जो कुछ एवं जैसा बना है, वह उसके अतीत विश्वास का ही फल है। मनुष्य जो कुछ एवं जैसा बनना चाहता है, वह उसके वर्तमान के विश्वास का ही फल होगा। इसी को शास्त्रीय भाषा में सम्यक् दर्शन कहा जाता है। ईश्वरत्व पर विश्वास करना, बाहर के परमात्मा पर नहीं, बल्कि अन्दर के परमात्मा पर विश्वास करना ही, अध्यात्म शास्त्र का मुख्य सिद्धान्त है । जो आत्मा कर्म को बलवान समझता है और अपने आपको दीन-हीन समझता है, वह कभी भी बन्धन से विमुक्त नहीं हो सकता । जब साधक यह विश्वास करता है, कि निश्चय में मैं परमात्मा हूँ, तब एक दिन बाहर से आने वाले बन्धन से विमुक्त भी हो सकता है। अध्यात्म-शास्त्र साधक के मन में इसी आस्था एवं निष्ठा को उत्पन्न करता है और कहता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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