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________________ २८ | अध्यात्म-प्रवचन और अविपाक को समझने से पहले आपको यह समझ लेना चाहिए, कि निर्जरा और मोक्ष में परस्पर क्या सम्बन्ध है ? निर्जरा और मोक्ष में कार्य-कारण भाव सम्बन्ध माना गया है। निर्जरा कारण है और मोक्ष उसका कार्य है । कारण के अभाव में कार्य नहीं हो सकता। निर्जरा के बिना मोक्ष भी नहीं हो सकता है । आत्म-सम्बद्ध कर्मों का एक देश से दूर होते जाना निर्जरा है और कर्मों का सर्वतोभावेन आत्मा से दूर हो जाना मोक्ष है । धीरे-धीरे निर्जरा ही मोक्ष रूप में परिवर्तित हो जाती है। एक-एक आत्म-प्रदेश के अंश-अंश रूप में क्रमिक कर्म-क्षय को निर्जरा कहते हैं और जब सभी प्रदेशों के सभी कर्मों का क्षय हो जाता है, तब वही मुक्ति है । निर्जरा और मोक्ष दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। निर्जरा का अन्तिम परिपाक ही मोक्ष है और मोक्ष का प्रारम्भ ही निर्जरा है । साधक के लिए जितना महत्त्व मोक्ष का है, निर्जरा का भी उतना ही महत्त्व है। निर्जरा के अभाव में मोक्ष नहीं और मोक्ष के अभाव में निर्जरा नहीं। जहाँ एक का अस्तित्व है, वहाँ दूसरे का अस्तित्व स्वतः सिद्ध है । परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि कौन सी निर्जरा मोक्ष का अंग है ? मैंने इस सम्बन्ध में आपसे कहा था कि सविपाक निर्जरा मोक्ष का अंग नहीं है, अविपाक निर्जरा ही मोक्ष का अंग है। साधना के द्वारा सम्यक्त्व का भाव जगने की स्थिति में जो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म टूटता है, वही मोक्ष का अंग है। और जो चारित्रमोह का क्षयोपशम आदि होने पर चारित्र मोह टूटता है एवं चारित्र की उपलब्धि होती है, वही मोक्ष का अंग है। सविपाक निर्जरा के द्वारा कर्मों को भोग-भोगकर पूरा किया जाना, मोक्ष का अंग नहीं हो सकता, क्योंकि भोग-भोगकर निर्जरा तो अनन्त अनन्तकाल से होती आ रही है। यदि सविपाक निर्जरा से मोक्ष होता, तो वह कभी का हो गया होता, परन्तु भोगकर कर्म कभी मूलतः समाप्त नहीं होते । अन्य कर्मों की बात छोड़िए। पहले मोहनीय कर्म को ही लीजिए । आप इसको कब तक भोगेंगे और कहाँ तक भोगेंगे ! जिस आत्मा ने मोहनीय कर्म की दीर्घ स्थिति का बन्ध किया है, वह कब तक इसे भोगता रहेगा? अकेले मोहनीय कर्म की दीर्घ स्थिति सत्तर कोड़ा-क्रोड़ सागरोपम की मानी जाती है। इसे कोई कब तक भोगेगा, कितने जन्मों तक भोगेगा ? कल्पना कीजिए यदि लाखों करोड़ों जन्मों में भोग मी ले, किन्तु इन जन्मों में वह नवीन कर्म का भी तो बन्ध करता रहेगा। जितना भोगा, उससे कहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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