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________________ ६६ | अध्यात्म-प्रवचन I ज्ञान के नेत्र खुल जाएंगे, तब सब कुछ समझ में आ जाएगा । जब अन्तश्चेतना में तत्त्व के प्रति अभिरुचि जागृत हो जाए और स्वयं की शुद्ध सत्ता पर अटूट आस्था जम जाए, तब समझिए कि आपको सम्यक् - दर्शन की उपलब्धि हो चुकी है। जड़ और चेतन का भेद विज्ञान ही सम्यक् दर्शन का मूल स्वरूप है । सम्यग् ज्ञान के द्वारा ही इस परम स्वरूप की अनुभूति होती है। ज्ञान ही स्वयं का अनुभव करता है और पता लगाता है, कि मैं क्या हूँ और क्या नहीं हूँ | ज्ञान के दिव्य आलोक में साधक अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है । बहुत से साधक यह कहा करते हैं कि "पता नहीं हमें सम्यक्त्व हुआ है या नहीं ? और यह भी पता नहीं कि हम भव्य भी है या नहीं ?" मेरे विचार में इससे बढ़कर अज्ञानता और नहीं हो सकती । साधक साधना के मार्ग पर चले और साथ में यह भी कहे कि मुझे कुछ मिला भी है या नहीं, मालुम नहीं । इसका अर्थ है - वह साधना के मार्ग पर चला ही नहीं । यदि चला भी है, तो केवल तन से चला है, मन से नहीं चला । प्रकाश की ओर बढ़ने वाला व्यक्ति प्रकाश की अनुभूति न करे, यह कैसे हो सकता है ? सच्चा साधक अपने हृदय में कभी दीनता एवं हीनता का अनुभव नहीं कर सकता । वह आशावादी होता है और जीवन भर आशावादी रहना ही सच्ची साधना है । जैन दर्शन आस्था, निष्ठा, श्रद्धा और विश्वास को इतना अधिक महत्त्व देता है कि इसके बिना वह साधना का आरम्भ नहीं मानता । साधना का आरम्भ विश्वास है, साधना का मध्य विचार है और साधना का अन्त आचार है । आचार को विचार - मूलक होना चाहिए और विचार को विश्वास-मूलक होना चाहिए । एक विचारशील श्रावक ने एक बार मुझसे पूछा कि "महाराज ! मुझे कभी मोक्ष मिलेगा कि नहीं, मुझे कभी केवल ज्ञान होगा कि नहीं ?" मैंने उसके प्रश्न के उत्तर में कहा कि "आपके विषय में तो मैं अभी कुछ नहीं कह सकता, किन्तु मुझे तो मोक्ष अवश्य मिलेगा, मैं तो केवल - ज्ञान अवश्य प्राप्त करूँगा ।" मेरे आन्तरिक विश्वास की इस दृढ़ भाषा को सुनकर वह साधक मेरे मुख की ओर देखने लगा और बोला - " महाराज इतना बड़ा दावा ?" मैंने कहा - " यदि इतना बड़ा दावा और इतना बड़ा विश्वास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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