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________________ साधना का लक्ष्य | ६५ लीजिए, तभी उसका अच्छा परिणाम दृष्टिगोचर होगा । जब मन का उल्लास जागृत होता है, भले ही वह कुछ क्षणों के लिए ही क्यों न हो, तभी आलोक की दिव्य ज्योति जगती है। यह मत समझिए कि जब अनन्तकाल से अन्धकार में रहे हैं, तब अब प्रकाश कसे मिल सकता है ? इस प्रकार का निराशापूर्ण विचार साधना के लिए एक प्रकार का विघ्न ही सिद्ध होता है। साधक को अपनी साधना में आस्था, निष्ठा और श्रद्धा रखनी चाहिए, तभी जीवन के अन्दर मौलिक परिवर्तन आ सकेगा। यह परिवर्तन एक वह परिवर्तन होगा, जिससे जीवन का समस्त अन्धकार दूर हो जाएगा और मानवीय जीवन दिव्य आलोक से जगमगा उठेगा। वह दिव्य आलोक क्या है ? उस दिव्य आलोक को जानने की उत्कठा और जिज्ञासा प्रत्येक साधक के हृदय में बनी रहती है। वह दिव्य आलोक और कुछ नहीं, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्दर्शन ही है। दर्शन और ज्ञान की सत्ता अनन्त-अनन्त काल से आत्मा में रही है, परन्तु कर्मों के आवरण के कारण वे असम्यक् हो गए हैं। उनके असम्यकपन को निर्जरा की साधना द्वारा दूर करना है। परन्तु जब तक इन्द्रिय के भोगों में आसक्ति बनी रहेगी, तब तक साधक अविपाक निर्जरा की साधना नहीं कर सकता। अविपाक निर्जरा के लिए अन्तश्चेतना की स्वच्छता, पावनता और निर्दोषता आवश्यक मानी जाती है। मैं आपसे यह कह रहा था कि दर्शन की सत्ता आत्मा में अनन्तकाल से है । दर्शन गुण कहीं बाहर से आने वाला नहीं है। दर्शन की उपलब्धि का अर्थ केवल इतना ही है कि उसके मिथ्यात्व भाव को हटाकर उसे सम्यक् बनाना है। उस दिव्य आलोक के ऊपर जो एक आवरण आ गया है, उस आवरण को दूर करना है । यदि हम अपनी साधना के द्वारा उस अनन्तकालीन आवरण को दूर कर सके, तो आत्मा का दिव्य आलोक अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आ जाएगा । आवृत अवस्था को छोड़कर अनावृत अवस्था में पहुँच जाएगा। ___ सम्यक्त्व अर्थात् सम्यग् दर्शन स्वयं अपने आपको देख नहीं सकता है । सम्यक्त्व की अनुभूति होनी चाहिए, किन्तु अनुभूति का काम सम्यक्त्व का नहीं, बल्कि ज्ञान का है । ज्ञान जितना ही निर्मल होगा, अनुभव उतना ही अधिक उज्ज्वल होगा। ज्ञान निर्मल कैसे हो? इसके लिए कहा गया है, कि स्वाध्याय और ध्यान करो। जब अन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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