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६४ | अध्यात्म-प्रवचन पुरातन संचित कर्म के क्षय की समस्या ही रह जाती है। पुरातन संचित कर्म का क्षय करना, यह निर्जरा का कार्य है। जब साधक पूर्व बद्ध कर्म फल को भोगे बिना ही एवं उसके उदय-काल से पूर्व ही उसका क्षय कर देता है, तब शास्त्र में उसे अविपाक निर्जरा कहा जाता है । तप, ध्यान एवं स्वाध्याय आदि की साधना से कर्म को उसके विपाक-काल से पहले ही समाप्त कर दिया जाता है । मोक्षा का मार्ग सविपाक निर्जरा नहीं, अविपाक निर्जरा है। जब साधक के हृदय में वैराग्य की दिव्य ज्योति जगमगा उठतो है, जब आत्मा अपने विभाव भावों से विरक्त होकर स्वस्वभाव में लीन हो जाता है, जब साधक के हृदय में संसार की आशा और तृष्णा का अन्त हो जाता है, जब साधक का चित्त सविकल्प समाधि से निकल कर निर्विकल्प समाधि में पहँच जाता है, तब वह अपने पूर्व-संचित कर्मों को निर्जरा की साधना से सर्वथा क्षय कर डालता है। इसके विपरीत यदि चित्त में निर्विकल्प समाधिभाव नहीं आया अथवा स्व-स्वभाव में रमण नहीं हुआ, तो कभी भी संसार की तृष्णा और आशा का अन्त नहीं हो सकेगा, भले ही वह साधक कितना भी तप करे, कितना भी जप करे, कितना भी ध्यान करे, कितना भी स्वाध्याय करे और कितना भी उत्कृष्ट आचार का आचरण करे। क्या कारण है कि साधक अपने जीवन में पचाससाठ वर्ष के जैसे दीर्घ जीवन को साधना में लगाने पर भी उसका कुछ भी फल प्राप्त नहीं कर पाता। यह तो वही बात हुई, जैसे किसी व्यापारी ने पचास वर्ष तक किसी फर्म को चलाया और अन्त में पूछने पर कहे, कि मैं तो कुछ कमा नहीं सका? व्यापारी के जीवन की यह सबसे अधिक भयंकर विडम्बना है। रोनी सूरत बनाकर व्यापार करने वाला, जैसे अपने व्यापार-कार्य में सफल नहीं होता है, वैसे ही रोनी सूरत बनाकर साधना के मार्ग पर बढ़ने वाला साधक भी अपनी साधना में असफल रहता है। साधना के क्षेत्र में संशय और आशंका भयंकर दोष माने जाते हैं। साधक को जो कुछ करना है, वह सब प्रसन्न भाव से करना चाहिए। रोते-रोते साधना करने से किसी प्रकार का लाभ नहीं हो सकता । भला यह भी कोई साधना है, कि एक ओर सामायिक तथा प्रतिक्रमण आदि की लम्बी एवं उग्र साधना चलती रहे और दूसरी ओर चित्त में राग एवं द्वेष के भयंकर तूफान उठते रहें । इस प्रकार की साधना से कभी अविपाक निर्जरा नहीं हो सकती। अविपाक निर्जरा के लिए मन की स्वच्छता और पवित्रता की नितान्त आवश्यकता रहती है। साधना के प्रति वफादारी चाहिए, उस में रस
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