________________
पंथवादी सम्यक् दर्शन | २६१ लक्ष्य के प्रति इतनी एकाग्रता और एकनिष्ठता रहनी चाहिए, कि कोई भी प्रलोभन और भय उसे अपने मार्ग से विचलित न कर सके । संसार के किसी एक ही पदार्थ का नहीं, बल्कि असंख्य पदार्थों का ज्ञान भी क्यों न हो जाये, परन्तु मूल में आत्मा का ज्ञान अवश्य रहना चाहिए। क्योंकि आत्मा का ज्ञान ही सम्यक् दर्शन है। यदि आत्मा में सम्यक् दर्शन का आलोक और सम्यक ज्ञान की विमल ज्योति है, तो प्रारब्ध के सारे भोग भोगते हुए भी, भोगावली कमों के उदय में आने पर भी उनके विपाक के समय सम्यक दृष्टि आत्मा की रागात्मक एवं द्वषात्मक वृत्ति मंद रहती है। साधक की स्थिति यह हो जाती है कि बाह्य पदार्थ के रहते हुए भी उसके मन में उसकी आसक्ति नहीं रहती । यदि साधक के मन में रागात्मक और द्वेषात्मक परिणति नहीं है, तो पदार्थों का ज्ञान करने में कोई आपत्ति नहीं है। राग और द्वष के मिश्रण से ही, ज्ञान मलिन एवं अपवित्र बनता है। सम्यक् दर्शन अध्यात्म जीवन के क्षेत्र में सबसे बड़ी कला और सबसे बड़ा जादू यही सिखाता है, कि तुम संसार में रहो, कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु याद रखो, संसार तुम्हारे में न रहे । नाव जल में चलती है कोई भय की बात नहीं, किन्तु नाव में जल नहीं जाना चाहिए । शरीर रहे कोई आपत्ति नहीं, किन्तु शरीर में ममताभाव नहीं रहना चाहिए। भोग्य पदार्थ रहें, कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु भोग के क्षणों में रागात्मक एवं द्वषात्मक दृष्टि नहीं रहनी चाहिए । मैं स्पष्ट कहता हूँ कि संसार के पदार्थों का ज्ञान करना चाहिए, परन्तु उनका ज्ञान राग या द्वेष के साथ नहीं करना चाहिए, यदि इस कला को हस्तगत कर लिया जाए तो फिर बाह्य पदार्थों में वह शक्ति नहीं है कि जो आत्मा को अपने आप में बाँध सकें । याद रखिए, आत्मा के साथ आत्मा को बांधने की आवश्यकता है, न कि पदार्थों को । आत्म-भाव में स्थिर रहने वाला साधक संसार में रहकर भी संसार के बन्धनों से ऊपर उठ जाता है, शरीर में रह कर भी शरीर की ममता के कारागार में बद्ध नहीं रहता। सम्यक दृष्टि आत्मा, जिसे विमल सम्यक् दर्शन की ज्योति की उपलब्धि हो चुकी है, वह व्यक्ति परिवार में रहता है, समाज में रहता है और राष्ट्र में रहता है, किन्तु फिर भी अपने मूल घर आत्मा को वह कभी भूलता नहीं है । जिस साधक की यह आत्म दृष्टि स्थिर हो जाती है,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org