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________________ ११६ / अध्यात्म प्रवचन अपने स्व= चिद् रूप में है, पर जड़ रूप में नहीं है । और जो स्व में नहीं है, वह स्व को तीन काल और तीन लोक में बाधा नहीं पहुँचा सकता । क्योंकि प्रत्येक पदार्थ अपनी अपेक्षा से है, पर की अपेक्षा से नहीं है । अतः निश्चय दृष्टि से कोई एक पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ के हानि एवं लाभ का कारण नहीं है। फिर भी विपरीत कल्पना के आधार पर और विपरीत मान्यता के आधार पर अथवा व्यवहार के आधार पर यह कहा जाता है, कि मेरे लिए कर्म बाधक हैं, जड कर्मों ने मुझे मार डाला । परन्तु अज्ञानी आत्मा यह नहीं सोचता, कि अपनी भूल के कारण और अपने ही राग एवं द्वष के कारण इस विकार रूप संसार का अस्तित्व है। आत्मा अपनी महानता को भूलकर अपने से भिन्न पर की महानता में विश्वास करता है । अपनी प्रभुसत्ता को भूल कर जब यह आत्मा जड़ पदार्थों के अधीन बन जाता है, तब उसकी यही स्थिति होती है, और यही दशा होती है । जो अपनी आत्मा को परमार्थतः सिद्ध समझकर उसका निरन्तर ध्यान करता रहता है, वह एक दिन अवश्य ही सिद्ध हो जाता है। ज्ञानी कहता है कि हे आत्मन् ! तू प्रभु है, तू परमात्मा है और तू परब्रह्म है। विश्व की समस्त आत्माएँ अपने शुद्ध स्वरूप से परमात्म स्वरूप हैं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। तूने अपने अज्ञान के कारण ही अपने से भिन्न जड़ तत्व में आनन्द मान रखा है। परन्तु वास्तव में जड़ में से कभी आनन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती। आश्चर्य है कि जड़ से सर्वथा भिन्न अपने विशुद्ध चिदानन्द रूप एवं ज्ञातृत्व भाव रूप स्व स्वरूप को छोड़कर आत्मा पर स्व रूप में भटक गया है। जब तक पर से हटकर वह स्व में स्थिर नहीं हो जाता है, तब तक उसे सच्चा सुख और आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता । अपने मोह, अज्ञान और राग-द्वेष के कारण ही, यह आत्मा जन्म एवं मरण के चक्कर में फंसा हुआ है। कर्म-जन्य इन विभिन्न गतियों एवं योनियों को यह आत्मा अपना स्थान समझता रहा है, किन्तु वास्तव में आत्मा का अपना स्थान नहीं है। ____ कल्पना कीजिए, एक मनुष्य धन उपार्जन के लिए स्वदेश को छोड़ कर परदेश गया । परदेश में वह इधर-उधर काफी भटका, एक नगर से दूसरे नगर में और दूसरे से तीसरे में गया, संयोगवश वहाँ उसे अच्छी सफलता मिली । पर्याप्त धन उपार्जन करने के बाद उसके मन में विचार उठा, कि अब मुझे अपने घर चलना चाहिए। विदेश में रहना मेरे जीवन का उद्देश्य नहीं है । जिस लक्ष्य को लेकर मैं स्वदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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