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सम्यग्दर्शन : सत्य-दृष्टि | १३६
लता है, कि जड़-सत्ता पर विश्वास करना सम्यक् दर्शन नहीं, बल्कि चैतन्य -सत्ता पर विश्वास करना ही सम्यक् दर्शन है । सत्य तो यह है कि जब तक कोई स्व को नहीं समझ पाता है, तब तक यथार्थ में पर को भी वह समझ नहीं पाता है । जिस घट में सम्यक् दर्शन की दिव्य ज्योति जगमगाती है, वही अपने जीवन के घनघोर अन्धकार को चीर कर प्रकाश - किरण के समान अपने आपको आलोकित कर सकता है तथा अपने साथ-साथ पर को भी आलोकित कर सकता है ।
मिथ्या-दृष्टि आत्मा दुःख आने पर घबरा जाता है और सुख आने पर फूल जाता है, किन्तु सम्यक् दृष्टि आत्मा सुख आने पर फूलता नहीं है और दुःख आने पर घबराता नहीं है । अनन्त ज्योति का अधिष्ठान यह दिव्य आत्मा अपनी दिव्यता को अधिगत करके धन्य हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है । जो कुछ पाना था, पा लिया । उसके लिए फिर कुछ अन्य पाना शेष नहीं रहता । कहा जाता है कि एक युवक ने बहुत बड़े तब की साधना करके किसी देवता को प्रसन्न कर लिया । देवता उस युवक की भक्ति पर प्रसन्न होकर बोला- “बोलो, क्या चाहते हो ? तुम्हारी क्या कामना है ? तुम्हारी क्या अभिलाषा है ? जो कुछ तुम माँगोगे वही मैं तुम्हें दे दूंगा ।" युवक ने सोचाबड़ा सद्भाग्य है मेरा, कि वर्षों की साधना के बाद देवता प्रसन्न हुआ है और वह स्वयं वरदान माँगने के लिए मुझसे कहता है इस क्षण से बढ़कर मेरे जीवन में अन्य कौन-सा क्षण आएगा । निश्चय ही मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ कि देवता मुझ पर प्रसन्न हुआ है । हाथ जोड़कर, नतमस्तक होकर विनम्र वाणी में वह बोला - " आपकी प्रसन्नता और फिर वरदान देने की इच्छा, इससे बढ़कर मेरे जीवन में अन्य क्या हो सकता है। यदि आप प्रसन्न होकर वरदान दे रहे हैं, तो मैं आपसे केवल एक हीं वरदान चाहता हूँ, कि इस असीम धरती पर जहाँ कहीं भी मैं पैर से ठोकर मारू, वहीं पर खजाना निकल आए ।" भला जिस व्यक्ति को देवता का ऐसा वरदान उपलब्ध हो जाता है, फिर उसे जेब में पैसा रखने की क्या आवश्यकता है ? फिर उसे बैंक का चैक रखने की क्या जरूरत है ? मेरे विचार में तो उस व्यक्ति को अपने शरीर पर सोने और चांदी के आभूषणों के भार लादने की भी आवश्यकता नहीं है । जिसके कदम-कदम पर खजाना है, उसे फिर दुनिया की किस चीज की आवश्यकता शेष रह जाती है ? यह एक रूपक है, एक कथानक है, जिसके मर्म को समझने का प्रयत्न कीजिए ।
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