SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग् दर्शन के लक्षण : अतिचार | ३३५ की अपेक्षा से कहे गए हैं, निश्चय नय की अपेक्षा से तो स्वस्वरूप पर आस्था होना ही सम्यक् दर्शन का वास्तविक लक्षण है । मैं यहाँ पर संक्षेप में यह बतलाने का प्रयत्न करूँगा कि इन पाँच लक्षणों का वास्तविक स्वरूप क्या है ? प्रशम क्या वस्तु है और प्रशम का स्वरूप क्या है ? इस सम्वन्ध में यह कहा गया है, कि आत्मा में कषाय भाव अनन्त काल से रहा है । यह कषाय भाव कभी तीव्र हो जाता है और कभी मन्द हो जाता है । जब कषाय की तीव्रता बढ़ती है, तब आत्मा अपने स्वरूप से विमुख हो जाता है । और कषाय मन्द होता है, तब यह आत्मा अपने स्वरूप की ओर उन्मुख होता है । कषाय की मन्दता ही वस्तुतः प्रशम है । एक व्यक्ति क्रोध आने पर भी जब शान्त रहता है, तब समझना चाहिए कि उससे प्रशम गुण है । एक व्यक्ति लोभ का प्रसंग आने पर भी संतोष रखता है, तब कहना चाहिए कि उसमें प्रशम गुण है । अभिमान और माया के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए । कषायभाव की मन्दता को ही प्रशम कहा जाता है और इस प्रशम गुण की अभिव्यक्ति जिस किसी भी जीवन में होती है, समझना चाहिए कि वह जीवन सम्यक् दर्शन गुण से विशिष्ट है । प्रशम गुण आत्मा की उस विशुद्ध स्वरूप की स्थिति का परिचय कराता है, जिसमें आत्मा कषाय का उदय होने पर भी उसका उपशमन करता रहता है । कषाय के उदय काल में कषाय का उपशमन करना सहज और आसान नहीं है कषायों का दमन करना और कषायों का उपशमन करना अपने आप में एक बहुत बड़ा तप है और अपने आप में एक बहुत बड़ी साधना है । विकार का कारण रहने पर भी विकार की अभिव्यक्ति न होने देना, यह एक आत्मा का असाधारण गुण है । इस गुण को प्रशम, उपशम और उपशमन भी कहा जाता है । यह सम्यक्त्व का पहला लक्षण है । । सम्यक् दर्शन का दूसरा लक्षण है - संवेग । संवेग का अर्थ क्या है, और उसका स्वरूप क्या है ? इस सम्बन्ध में यह कहा जाता है, कि आत्मा के ऊर्ध्वमुखी भाव-वेग को ही संवेग कहा जाता है । वेग का अर्थ है - गति एवं गमन । जब यह गमन अधोमुखी होता है, तब आत्मा पतन की ओर जाता है और जब यह गमन सम् अर्थात् अध्यात्म भाव में ऊर्ध्वमुखी होता है, तब आत्मा उत्थान की ओर जाता है । संवेग का एक दूसरा अर्थ भी किया जाता है कि भव-भीति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy