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________________ १४६ / अध्यात्म प्रवचन परन्तु सम्यक् दृष्टि का जीवन तो एक वह जीवन है, जो संसार के दुःख को भी पी जाता है और सुख को भी । सुख और दुःख दोनों का विषपान करके वह उस शुभंकर शिव के समान अचल, अडोल और अडिग रहता है, जो अपने मन एवं मस्तिष्क पर न सुख का प्रभाव पड़ने देता है और न दुःख का ही अंकन होने देता है। सम्यक दृष्टि जीवन की यह सबसे ऊँची कला है। जिस व्यक्ति ने सम्यक दर्शन के अमर प्रकाश को प्राप्त कर लिया, वह सुख और दुःख दोनों की स्थिति में चमकता रहता है। आपने राजा श्रेणिक के जीवन की कहानी पढ़ी होगी, यदि नहीं पढ़ी है, तो किसी से सुनी होगी । वह भगवान महावीर का परम भक्त था। भगवान महावीर के प्रति उसके मन में अगाध और अथाह आस्था थी । वह भगवान को अपना परम आराध्य समझता था। उसे सम्यकदर्शन की वह अमर-ज्योति प्राप्त हो चुकी थी, जिसके समक्ष स्वर्ग के भी सुख तुच्छ थे और नरक के भयंकर दुःख भी उपेक्षणीय थे। सम्यक दर्शन की अमर ज्योति जिस में प्रज्वलित हो जाती है, उस साधक के मन को न स्वर्गों के रंगीन सुख लुभा सकते हैं और न नरक के दुःखों की भयंकर आग तपा सकती है। राजा श्रेणिक अपने कृत कर्मों के कारण नरक में गया, किन्तु नरक के दुःख एवं कष्ट उसे प्रभावित नहीं कर सके। सम्यक दर्शन की उपलब्धि के समक्ष संसार के सख और दःख उपेक्षणीय हो जाते हैं। यही स्थिति राजा श्रेणिक के जीवन की थी । राजा श्रेणिक के ही जीवन की क्या, प्रत्येक सम्यक दृष्टि के जीवन की यही रामकहानी है। यदि अध्यात्म-दृष्टि प्राप्त नहीं हुई है, तो उस आत्मा का दुःख में तो पतन होता ही है, किन्तु सुख में भी उसका पतन हो जाता है। मैं तो यह कहूँगा कि जिस आत्मा को सम्यक् दर्शन प्राप्त हो चुका है, उसके लिए नरक भी स्वर्ग है । किन्तु मिथ्या-दृष्टि के लिए स्वर्ग भी नरक से बढ़कर है। क्योंकि सम्यक दृष्टि आत्मा ऊर्ध्वमुखी होता है, जब कि मिथ्या-दृष्टि आत्मा अधोमुखी होता है। बहुत से लोग दिन और रात अध्यात्म ग्रंथों का पारायण एवं पाठ करते रहते हैं, किन्तु फिर भी उनकी दृष्टि में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । याद रखिए, संसार के किसी भी ग्रंथ से, किसी भी पुस्तक से और संसार की किसी भी वाणी से अध्यात्म-दृष्टि प्राप्त नहीं हो सकती । दुनिया की किसी भी पोथी में यह ताकत नहीं है, कि वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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