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________________ सम्यक् दर्शनः सत्य-दृष्टि | १४५ मुझ से घृणा एवं नफरत की है। इसने मुझे दिया है और उसने मुझसे छीना है । इस प्रकार के द्वैतात्मक विविध विकल्प मिथ्या दृष्टि के मानस के रेगिस्तान में तूफान बनकर उठते रहते हैं । सुख देने वाले पर वह राग करता है और दुःख देने वाले से वह द्व ेष करता है । प्यार करने वाले से वह प्यार करता है और नफरत करने वाले से वह नफरत करता है । इसलिए जिन्दगी का प्यार भी उसे बाँधता है और जिन्दगी की नफरत भी उसे बाँधती है । न उसे प्यार में सुख है और न उसे नफरत में सुख है । क्योंकि मिथ्या दृष्टि आत्मा मूल उपादान को नहीं पकड़ता, वह बाह्य निमित्त को पकड़ता है । इसके विपरीत सम्यक् दृष्टि आत्मा मूल उपादान को पकड़कर चलता है, बाह्य निमित्त को पकड़ने का वह प्रयत्न नहीं करता । इसीलिए उसे अपनी जिन्दगी की राह पर चलते हुए न किसी का प्यार पकड़ता है, और न किसी की नफरत ही रोक सकती है। संसार का सुख उसे बाँध नहीं सकता और संसार का दुःख उसे रोक नहीं सकता । अनुकूलता का वातावरण उसे भुलावा नहीं दे सकता और प्रतिकूलता का वातावरण उसे बहका नहीं सकता । प्यार और नफरत, सुख और दुःख तथा अनुकूलता और प्रतिकूलता - इन समस्त प्रकार के द्वन्द्वों से, विकल्पों से और अच्छे एवं बुरे विकारों से वह दूर, बहुत दूर चला जाता है, वह ऊँचा और बहुत ऊँचा उठ जाता है, वह गहरा और बहुत गहरा उतर जाता है। उसके जीवन की इस दूरी को, ऊँचाई को और गहराई को दुनिया की कोई भी ताकत चुनौती नहीं दे सकती । इसीलिए मैं कहता हूँ, सुख और दुःख दोनों हमारे जीवन को मोड़ देने का कार्य करते हैं । ज्ञानी के जीवन में यदि सुख आता है, तो वह भी उसे कुछ शिक्षा दे जाता है, यदि दुःख आता है तो वह भी उसे शिक्षा दे जाता है । सुख और दुःख दोनों साधक के जीवन के शिक्षक हैं, बल्कि में तो इससे भी आगे एक बात और कहता हूँ कि सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक योग्य शिक्षक है । सुख में फंसा हुआ भक्त कभी अपने प्रभु को विस्मृत भी कर देता है । किन्तु दुःखग्रस्त भक्त एक क्षण के लिए भी अपने प्रभु को विस्मृत नहीं करता है । बतलाइए, जो अपने आराध्य प्रभु को भुलाये वह अच्छा है अथवा जो प्रभु का स्मरण कराता है वह अधिक अच्छा है ? धर्मराज युधिष्ठिर की माता कुन्ती ने एक बार श्रीकृष्ण से यही वरदान माँगा था कि मुझे सुख मत दीजिये, मुझे दुःख ही दीजिये । सुख में मैं आपको भूल सकती हूँ किन्तु दुख के क्षणों में आपको कभी नहीं भूल सकूंगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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