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________________ १४४ | अध्यात्म-प्रवचन का भान नहीं है, अथवा जिसने आध्यात्मिक प्रकाश को प्राप्त नहीं किया है, वह व्यक्ति दुःख, कष्ट और विपत्ति की ज्वाला में घास, लकड़ी और कागज की तरह जलकर राख हो जाता है तथा उसके जीवन पर दोषों के काले धब्बे पड़ जाते हैं । उसको कष्टों से मुक्ति नहीं मिल पाती । जो अपने स्वरूप की उपलब्धि नहीं कर पाते, वासना में फँसे रहते हैं, वे सुख-दुःख की अग्नि में पड़कर और भी अधिक मलिन बन जाते हैं । मिथ्या-दृष्टि आत्मा को दुःख ही नहीं जलाता, सुख भी उसे गला डालता है । जिसके मन में समता नहीं है, उस विषमताधारो व्यक्ति को दुःख भी परेशान करता है और सुख भी उसे हैरान करता है । कष्ट बुरे नहीं होते, वे लोगों को जगाने का काम करते हैं । जिस इन्सान की जिन्दगी गफलत में है, आफत उसे आकर जगा देती है । दुःख संसार का एक बहुत बड़ा शिक्षक है, वह यह बोध - पाठ सिखाता है, कि जो कुछ तुमने किया वही तो तुम पा रहे हो। तुम्हारे अतीत का कर्म ही तो आज फलीभूत हो रहा है । जिस समय तुमने यह अशुभ कर्म किया था, उस समय तुमने यह विचार क्यों नहीं किया, कि आखिर इसका फल एक दिन मुझे भोगना ही होगा । संसार का यह एक शाश्वत और अटल नियम है, कि जो बोता है वही काटता है, जो देता है वही लेता है और जो करता है वही भोगता है । इस नियम के अनुसार सम्यक् - दृष्टि आत्मा दुःख और कष्ट आने पर सोचता है, कि मेरा किया हुआ ही तो मैं भोग रहा हूँ, मेरा दिया हुआ ही तो मैं ले रहा हूँ और मेरा बोया हुआ ही तो मैं काट रहा हूँ । ये दुःख एवं कष्ट के बीज जब मैंने अपने जीवन की धरती पर बोए हैं, तब उसके काँटेदार वृक्षों के कटुफल भी मुझे ही भोगने हैं । यदि मुझे मेरे जीवन में कहीं से भी, किधर से भी और किसी से भी दुःख एवं कष्ट मिल रहा है, तो इससे मैं दुःखी क्यों बनूं ? क्या हैरान एवं परेशान होने से मेरी जिन्दगी की राह में आने वाली आफत दूर हो सकती है ? नहीं, वह दूर नहीं होगी । कृतकर्म hi और उसके शुभ एवं अशुभ फल को समभाव के साथ भोग लेना ही सम्यक् दृष्टि का परम कर्तव्य है, जिससे कि भविष्य के लिए फिर उस कर्म का बन्ध न हो। यह अध्यात्म दृष्टि बिना सम्यक् दर्शन के प्राप्त नहीं हो सकती है । इसके विपरीत मिथ्या दृष्टि क्या सोचता है ? वह सोचता है, कि इस व्यक्ति ने मुझे सुख दिया है, उस व्यक्ति ने मुझे दुःख दिया है । इस व्यक्ति ने मुझसे प्रेम किया है, उस व्यक्ति ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001337
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size17 MB
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